Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
मीमांसा दर्शन स्मृति को प्रमाण नहीं मानता, क्योंकि स्मृति अन्य प्रमाण द्वारा गृहीत अर्थ का ही ज्ञान कराती है और मीमांसादर्शन के अनुसार प्रमाण अनधिगत अर्थ का ग्राही होता है । ४१ वैशेषिकदर्शन में स्मृति को विद्या का एक प्रकार प्रतिपादित करते हुए भी उसे पृथक् प्रमाण की संज्ञा नहीं दी गयी, इसका कारण श्रीधर बतलाते हैं कि स्मृति पूर्वानुभूत विषय के ही उपदर्शन से अर्थ का निश्चय कराती है इस लिए वह पूर्वानुभव के परतन्त्र होने से प्रमाण नहीं कही जा सकती । ४२
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न्यायदर्शन में स्मृति को न प्रमाण कहा गया है और न ही प्रमा, तथापि क्षणिकवादी बौद्धों का खण्डन कर आत्मा को नित्य सिद्ध करते हुए स्मृति को हेतु बनाया गया है, वात्स्यायन कहते हैं कि निरात्मक क्षणिक विज्ञानधारा मात्र को आत्मा मानने पर एक ही ज्ञाता के द्वारा अनुभव और स्मरण की सिद्धि नहीं होती । अतः नित्य आत्मा मानना आवश्यक है । इस प्रकार आत्मा की नित्यता सिद्ध करने हेतु नैयायिकों ने स्मृति को साधकतम हेतु के रूप में प्रयुक्त किया है ।
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जयन्तभट्ट ने स्मृति को अर्थजन्य नहीं होने के कारण अप्रमाण माना है। उनके अनुसार स्मृति गृहीतमाही ज्ञान होने से अप्रमाण नहीं है, अपितु पदार्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण अप्रमाण है। यह उल्लेखनीय है कि नैयायिकों ने धारावाहिक ज्ञान को गृहीतग्राही होने पर भी प्रमाण माना है तथा मीमांसकों के अनधिगतार्थग्राही प्रमाण- लक्षण का खण्डन किया है। वाचस्पतिमिश्र ने न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका में स्मृति को प्रमा नहीं माना है, क्योंकि वे शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध को लोकाधीन मानते I 'उदयनाचार्य का मत है कि महर्षियों और अभियुक्तों ने स्मृतिज्ञान के लिए प्रमाण शब्द का प्रयोग नहीं किया है, इसलिए स्मृतिज्ञान अप्रमाण है ।
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बौद्धमत में स्मृति का अप्रामाण्य
स्मृति को प्रमाण न मानने का सबसे प्रबल पक्ष बौद्ध दार्शनिकों का है। बौद्ध दार्शनिक स्मृति को अग्राङ्कित कारणों से प्रमाण नहीं मानते हैं - (१) स्मृति प्रत्यक्षादि द्वारा गृहीत अर्थ का ज्ञान करती है । गृहीत अर्थ का ज्ञान करने से उसका कोई प्रमाण व्यापार नहीं होता । (२) स्मृतिज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता । जो ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है वही अर्थ का अव्यभिचरित ज्ञान कराने से प्रमाण होता है । (३) स्मृति को प्रमाण मानने पर इच्छा, द्वेष आदि को भी प्रमाण मानना होगा फलतः अव्यवस्था होगी (४) स्मृतिज्ञान विसंवादक है। (५) स्मृतिज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण अर्थाकार भी नहीं होता। इसलिए भी वह अप्रमाण है ।
४१. प्रमिते च प्रवृत्तत्वात् स्मृतेर्नास्ति प्रमाणता ।
परिच्छेदफलत्वाद्धि प्रामाण्यमुपजायते । श्लोकवार्तिक, शब्दपरिच्छेद १०४, पृ. ३०६
४२. अत एव न प्रमाणं तस्याः पूर्वानुभवविषयत्वोपदर्शनेनार्थं निश्चिन्वत्या अर्थपरिच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात् । - न्यायकन्दली, पृ. ६२७
४३. न्यायसूत्र (वात्स्यायन भाष्य), ३.२.३९
४४. न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् ।
अपित्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् ॥ - न्यायमञ्जरी, पृ. २१ (काशी संस्कृत ग्रन्थमाला)
४५. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ. २१
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