Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार
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है तथा उसे अतीत विषयों को ग्रहण करने वाला प्रतिपादित किया है। योगसूत्र में पतञ्जलि ने स्मृति को प्रमाण, विपर्यय, विकल्प एवं निद्रा की भांति एक चित्तवृत्ति माना है, तथा अनुभूत विषय के असम्प्रमोष को स्मृति कहा है। ३२ न्यायदर्शन के अनुसार एक ही ज्ञाता पूर्वकाल में ज्ञात विषय का जब पुनः ग्रहण करता है तो वह स्मरण कहलाता है। ३३ न्यायसूत्र में स्मरण को आत्मा का गुण कहा गया है३४ तथा स्मृति की उत्पत्ति में प्रणिधान, निबन्ध, अभ्यास आदि अनेक हेतुओं की गणना की गई है । ३५ न्यायवार्तिक में उद्योतकर ने प्रत्यक्ष ज्ञान का निरोध होने पर उसके विषय का अनुसंधान करने वाले प्रत्यय को स्मृति कहा है। ब्रह्मसूत्र के शाङ्करभाष्य में भी स्मृति - अधिकरण में स्मृति की चर्चा है। समुदायाधिकरण में शङ्कर ने वैनाशिक बौद्धों का खण्डन करते हुए द्रष्टा एवं स्मर्ता का एककर्तृत्व अङ्गीकार किया है।
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बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति ने उत्पद्यमान सदृश अपर अपर भावों में भेद की प्रतीति न होने से 'स एवायम्' (यह वही है) इस आकार वाले विकल्प को स्मरण कहा है। ३७ उनके मत में स्मृति अतीत अर्थ में होती है, अगृहीत में नहीं । ३८ वह अनुभव से उत्पन्न होती है, बिना अनुभव या प्रत्यक्ष के नहीं होती, तथा अर्थाकार से रहित होती है। ३९ इस प्रकार सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में स्मृति की चर्चा हुई है, किन्तु पृथक् प्रमाण के रूप में इसका स्थापन जैनदार्शनिकों द्वारा ही किया गया है।
स्मृति 'प्रमाण' क्यों नहीं ?
भारतीय संस्कृति में वेदों के अनन्तर स्मृतियों को ही प्रमाण माना गया है। वेदों के लुप्त ज्ञान का प्रतिपादन स्मृतियों द्वारा हुआ है, इसलिए स्मृतियां लोक-व्यवहार में प्रमाणभूत हैं । तथापि वैदिक दर्शन - प्रस्थानों में स्मृति को एक पृथक् प्रमाण क्यों स्वीकार नहीं किया गया, इस सम्बन्ध में पं. सुखलाल संघवी ने अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि वैदिक परम्परा में श्रुति अर्थात् वेद मुख्य प्रामाण्य है तथा स्मृति का प्रामाण्य श्रुति के अधीन है। यही कारण है कि मीमांसा आदि वैदिक दर्शनों में स्मृति ज्ञान को अनुभव या प्रत्यक्ष के अधीन होने के कारण प्रमाण नहीं माना है।
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३१. प्रशस्तपादभाष्य, स्मृतिप्रकरण ।
३२. प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः । अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ।- योगसूत्र, १.६, एवं ११
३३. न्यायसूत्र (वात्स्यायन भाष्य), ३.२.१८
३४. स्मरणं त्वात्मनोज्ञस्वाभाव्यात् । - न्यायसूत्र,
३५. न्यायसूत्र, ३.२.४१
३६. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, २.२.२५
३७. प्रमाणवार्तिक, २.४९८-९९
३.२.४०
३८. स्मृतिर्भवेदतीते च साऽगृहीते कथं भवेत् । प्रमाणवार्तिक, २.१७९
३९. स्मृतिश्चेदृग्विधं ज्ञानं तस्याश्चानुभवाद् भवः ।
स चार्थाकाररहितः सेदानीं तद्वती कथम् ? - प्रमाणवार्तिक, २.३७४
४०. प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ. ७३
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