Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अनुमान प्रमाण
नहीं होता है, तथा पर्वत- गुफा में विद्यमान जिन धूम एवं अग्नि विशेषों में गम्य- गमक भाव है उनका कार्यकारण भाव ज्ञात नहीं है। कार्यकारण भाव के ज्ञात नहीं होने पर उनके अविनाभाव का ग्रहण नहीं किया जा सकता और अविनाभाव गृहीत हुए बिना यह अनुमान का अंग नहीं बनता । पर्वतस्थ धूम एवं अग्नि के अविनाभाव का ग्रहण होने पर तो हेतु-ज्ञान की वेला में ही साध्य का ज्ञान हो जाना चाहिए, उसके अनन्तर अनुमान निष्प्रयोजन है।
इस प्रकार वादिदेवसूरि ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से अविनाभाव मानने का खण्डन किया है। वे समस्त सम्यक् हेतुओं में व्याप्त स्वयोग्यता को ही अविनाभाव में कारण मानते हैं । स्वयोग्यता से ही कोई किसी के साथ अविनाभूत है, सब सबके साथ नहीं । २९७
व्याप्ति के दो रूप प्रसिद्ध हैं - १. अन्तर्व्याप्ति और २. बहिर्व्याप्ति । जैन दार्शनिकों ने बहिर्व्याप्ति की अपेक्षा अन्तर्व्याप्ति को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। यही नहीं वादिदेवसूरि ने अन्तर्व्याप्ति के द्वारा साध्य का ज्ञान होने या न होने, दोनों स्थितियों में बहिर्व्याप्ति को व्यर्थ माना है२९ २९७अ पक्ष में ही साधन की साध्य के साथ व्याप्ति होने को अन्तर्व्याप्ति तथा पक्ष के बाहर व्याप्ति होने को बहिर्व्याप्ति कहा गया है । २९७आ
समीक्षण
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व्याप्ति के स्वरूप को लेकर जैनदार्शनिकों का बौद्धमत से विरोध नहीं है। दोनों दर्शनों में अविनाभावनियम को व्याप्ति स्वीकार किया गया है। यह अवश्य है कि बौद्धदर्शन में स्वभाव - प्रतिबन्ध के रूप में अविनाभावनियम का विधिपरक प्रतिपादन भी किया गया है, जबकि जैनदर्शन में व्याप्ति का प्रतिपादन मूलतः निषेधपरक है। उससे ही जैन दार्शनिकों ने उसका तथोपपन्नत्व नामक विधिपरक रूप फलित किया है। लेकिन जैन दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत तथोपपन्नत्व रूप व्याप्ति की उतनी स्पष्ट व्याख्या नहीं करता जितनी बौद्ध दर्शन में 'स्वभाव- प्रतिबंध' शब्द से की गयी है। बौद्ध एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित अविनाभाव नियम रूप व्याप्ति का नव्य- नैयायिक गंगेश ने खण्डन किया है । गणेश का कथन है कि अविनाभावनियम को व्याप्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह केवलान्वयी अनुमान में अव्याप्त है।'
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बौद्ध दार्शनिकों ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति द्वारा हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति स्वीकार की है । उनका मंतव्य है कि जिससे जिसकी उत्पत्ति होती है उसमें उसका अव्यभिचार होता है एवं जिसमें जिसका तादात्म्य होता है उसमें भी उसका अव्यभिचार होता है। किन्तु लोकव्यवहाराभिमुख जैन दार्शनिक इन दोनों सम्बन्धों से व्याप्ति का होना स्वीकार नही करते हैं । उनके अनुसार पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदिं ऐसे अनेक हेतु हैं जिनमें साध्य के साथ न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति, तथापि उनकी
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२९७. स्याद्वादरत्नाकर, पृ. ५३५-३६ २९७अ. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.३७
२९७आ. प्रमाणनयतत्त्रालोक, ३.३८
२९८. नाप्यविनाभावः केवलान्वयिन्यभावात् । तत्त्वचिन्तामणि, पूर्वपक्ष, व्याप्तिप्रकरण, तिरूपति, १९८२
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