Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 312
________________ अनुमान-प्रमाण २८१ बिना भी प्रकृत (साध्य) अर्थ का ज्ञान होना उचित है,अतःजैन मत में भी तीक्ष्णमति पुरुष के लिए पक्ष प्रयोग को अंगीकार नहीं किया जाता ,किन्तु मन्दमति पुरुषों के लिए पक्षवचन का प्रयोग उपादेय है।३७३ बौद्धों का यह प्रश्न कि पक्षवचन अकेला साध्य अर्थ का ज्ञान कराता है,अथवा हेतु से युक्त होकर साध्य अर्थ का ज्ञान कराता है,अयुक्त है। क्योंकि इनमें अकेला पक्षवचन साध्य अर्थ का ज्ञान नहीं कराता है,द्वितीय विकल्प जैनों को इष्ट है । पक्ष,हेतु से समन्वित होकर साध्य का ज्ञान कराता है इसलिए उसमें हेतु का ही सामर्थ्य मानकर पक्ष-कथन को व्यर्थ बतलाना अयुक्त है,क्योंकि इस प्रकार तो साध्य की सिद्धि में कारणभूत रूप से उपपन्न हेतु भी दृष्टान्त के समर्थन की अपेक्षा रखता है,अतः हेतु-कथन नहीं करने का भी प्रसंग आता है,जो बौद्धों को इष्ट नहीं है।३७४ समीक्षण जैन दार्शनिक पक्ष-वचन या प्रतिज्ञा का कथन करना साध्य धर्म में रहे हुए संदेह का निवारण करने के लिए आवश्यक मानते हैं । प्रतिज्ञा का कथन किये बिना हेतु का कथन करना उनके मत में उचित नहीं है । यह अवश्य है कि अतिव्युत्पन्न पुरुषों के लिए वे पक्ष-वचन के बिना भी बौद्धों की भांति सीधे हेतु से ही साध्य का परार्थ अनुमान शक्य मानते हैं । वस्तुतःपक्ष-वचन अथवा प्रतिज्ञा का कथन करना अभीष्ट साध्य की सिद्धि करने के लिए उपादेय अवश्य है, किन्तु बौद्ध दार्शनिक हेतु में पक्षधर्मत्व का प्रतिपादन कर पक्ष-वचन की आवश्यकता का निराकरण कर देते हैं । उनके अनुसार प्रतिज्ञा का कथन किये बिना भी हेतु एवं दृष्टान्त या मात्र हेतु' द्वारा भी परार्थानुमान शक्य है। जैन दार्शनिक हेतु में पक्षधर्मत्व का होना आवश्यक नहीं मानते हैं, अतः उनके द्धारा परार्थानुमान में पक्ष-वचन को आवश्यक मानना युक्तिसंगत है। पक्षाभास बौद्ध एवं जैन दर्शन में पक्षाभास की भी चर्चा हुई है, किन्तु दोनों दर्शनों का उसके स्वरूप में कोई मतभेद नहीं है । पक्षाभासों की गणना में थोड़ा भेद अवश्य रहा है तथा कालक्रम से उसके भेदों में संशोधन होता रहा है । बौद्ध ग्रंथ न्यायप्रदेश में पक्षाभास के आठ भेद निरूपित हैं- प्रत्यक्षविरुद्ध, अनुमानविरुद्ध,आगमविरुद्ध,लोकविरुद्ध,स्ववचनविरुद्ध,अप्रसिद्धविशेषण,अप्रसिद्धविशेष्य और अप्रसिद्धोभव्ह । धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु में चार ही भेद प्रतीपादित हैं. प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत,प्रतीतिनिराकृत और स्ववचन निराकृत । जैनदार्शनिक सिद्धसेन ने सिद्ध और बाधित ये दो भेद करके बाधित के चार प्रकार बतलाये हैं- प्रत्यक्षबाधित, लिङ्गबाधित, लोकबाधित एवं स्ववचनबाधित । वादिराज द्वारा तीन भेद प्रतिपादित किये गये हैं- प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत, और आगम निराकृत । माणिक्यनन्दी ने अनिष्ट एवं बाधित दो भेद करके बाधित के पांच प्रकार ३७३. स्याद्वादरलाकर, ३.२३ पृ.५५० ३७४.स्याद्वादरत्नाकर, पृ.५५७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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