Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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अनुमान-प्रमाण
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की विकलता न हो।२१३ समीक्षण
जैन दार्शनिकों ने कारण' को हेतु रूप में मुख्यतःलोकव्यवहार के कारण स्वीकार किया है,तथा वे समस्त अनुकूल कारणों को हेतु की संज्ञा नहीं देते हैं, अपितु उसी कारण को हेतु रूप में स्वीकार करते हैं जो निश्चित रूप से कार्य को उत्पन्न करता है, जिसमें कार्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य बाधित नहीं होता है,तथा कारणान्तरों के सहकार को भी जिसमें विकलता नहीं होती है।
जैन दार्शनिकों द्वारा कारण को हेतु रूप में प्रतिष्ठित करना लोक-व्यवहार के लिए उपादेय हो सकता है, तथा वह अधिकतर प्रवृत्तिशील पुरुषों के व्यवहार की व्याख्या भी कर सकता है, किन्तु कारण का कार्य की उत्पत्ति के साथ अविनाभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता । कारण,कार्य अभाव में रह सकता है तथा अनेक कारण कार्य को उत्पन्न किये बिना विराम भी पा सकते हैं। इसलिए कारण को हेतु मानना अव्यभिचरित नहीं कहा जा सकता,तथापि जैन दार्शनिकों ने कारण को हेतु सिद्ध करते हुए उसके साथ वे सब शर्ते लागू कर दी हैं,जो उसे हेतु के रूप में प्रतिष्ठित कर सकें । इस बात का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता कि अनेक बार कारण से अव्यभिचरित कार्य का ज्ञान होता है,और हम इसलिए उन कारणों में प्रवृत्त होते हैं जो हमारा अभीष्ट कार्य सम्पन्न कर सकें । यथा-दवा रूप कारण का उपयोग करके हम बीमारी को समाप्त करना चाहते हैं, और अनेक बार अव्यभिचरित रूप से बीमारी दूर भी हो जाती है, किन्तु यह कोई निश्चितता नहीं है कि हर बार अमुक दवा से अमुक रोग दूर हो ही जाय । ऐसे उदाहरण भी देखने में आये हैं, जिनमें कारण अव्यभिचरित रूप से कार्य को उत्पन्न करता है,यथा- 'दूध मीठा है,क्योंकि इसमें निश्चित मात्रा में चीनी मिलाई गई है।' 'गुब्बारा ऊपर उड़ेगा,क्योंकि इसमें हाइड्रोजन गैस भरी गयी है।' 'प्रतिक्रिया होगी क्योंकि क्रिया हई है।' क्रिया की प्रतिक्रिया होने का वैज्ञानिक सिद्धान्त अव्यभिचरित रूप से विज्ञान जगत् में मान्य हो गया है,जो एक प्रकार से कारण हेतु का ही रूप है । __ समर्थ कारण के कदाचित् हेतु होने का प्रतिषेध निश्चित रूप से नहीं किया जा सकता,किन्तु जैनदर्शन में प्रतिपादित हेतु-लक्षण के साथ उसका सामञ्जस्य नहीं बैठ पाता,क्योंकि जैन दार्शनिकों के अनुसार हेतु साध्य के अभाव में नहीं रहता है,जबकि कारण,कार्य की उत्पत्ति न होने तक उसके अभाव में रह सकता है, इसलिए कारण को हेतु मानने में स्पष्टतः साध्य के साथ निश्चित अविनाभाविता रूप लक्षण का उल्लंघन होता हुआ दिखाई देता है,जो विचारणीय है। पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतु
जैन दार्शनिकों ने क्रमभाव-अविनाभाव के आधार पर साध्य की सम्यक् प्रतिपत्ति कराने वाले पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं को भी प्रतिष्ठित किया है । जैन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि दो वस्तुओं २१३. प्रमाणमीमांसा, पृ. ४२-४३
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