Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ग्राहक निर्विकल्पक ज्ञान होता है,क्योंकि वह अर्थसामर्थ्य से उत्पन्न होता है,उसके अनन्तर काल में निर्विकल्पक ज्ञान से अर्थनिरपेक्ष एवं सांश वस्तु का अध्यवसायी अविशद सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है। शीघ्र उत्पन्न होने के कारण निर्विकल्पक ज्ञान की विशदता के अध्यारोपसे लोक सविकल्पक को प्रत्यक्ष मानता है।' ___उपर्युक्त न्याय से विकल्प ही विशद रूप में उत्पन्न ठहरता है क्योंकि निरंश,क्षणिक परमाणु का व्यवसाय करने वाले निर्विकल्पक ज्ञान की कहीं भी उपलब्धि नहीं होती है । इसलिए उसमें वैशद्य की कल्पना करना खण्डित हो जाता है ।२९५ बौद्ध- समस्त कल्पनाओं के समापन की अवस्था में पुरोवर्ती अर्थ के प्रकाशक,स्पष्ट एवं इन्द्रिय से उत्पन्न निर्विकल्पक ज्ञान का अनुभव किया जाता है। ज्ञान में निर्विकल्पकता प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है । उसके लिए अन्य प्रमाण के अन्वेषण की आवश्यकता नहीं है । समस्तविकल्पों के समापन की अवस्था में नामादि से युक्त अर्थ के उल्लेख रूप विकल्प का अनुभव नहीं होता है। १६ अभयदेवसरि - समस्त विकल्पों से रहति अवस्था ही सिद्ध नहीं है क्योंकि उस अवस्था में भी स्थिर एवं स्थूल स्वभाव वाले,शब्द संसर्ग के योग्य पुरोवर्ती 'गो' आदि के प्रतिभास का अनुभव होता है और वह सविकल्पक ज्ञान काही अनुभव है।
शब्द संसर्ग का प्रतिभास ही सविकल्पकता नहीं है ,अपितु शब्द संसर्ग के योग्य प्रतिभास को भी धर्मकीर्ति ने सविकल्पक स्वीकार किया है। २९७ अतः पुरोवर्ती गौ आदि का प्रतिभास शब्द संसर्ग के योग्य होने से सविकल्पक ही है। यदि ऐसा नहीं मानते हैं तो अव्युत्पन्न संकेत वाले बालक का ज्ञान शब्दसंसर्ग से रहित होने के कारण सविकल्पक सिद्ध नहीं होगा ,जबकि उसे बौद्ध दार्शनिक सविकल्पक मानते हैं । २९८ अतःशब्द संसर्ग के योग्य प्रतिभास के विशद होने से सविकल्पक ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मानना चाहिए। सविकल्पक ज्ञान में आवश्यक नहीं है कि शब्द योजना हो । शब्द योजना के बिना भी स्थिर एवं स्थूल अर्थ का प्रतिभास निर्णयात्मक हो सकता है। वही विशद, निर्णयात्मक एवं सविकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है ।२९९
यदि विकल्प का स्वरूप शब्द योजना से युक्त अर्थ का ग्रहण करना माना जाय तो ३०° शब्द २९५. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख२९६.(१) तुलनीय-संहृत्य सर्वतचिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना ।
स्थितोपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मति: ।-प्रमाणवार्तिक,२.१ (२) प्रत्यक्षं कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।-प्रमाणवार्तिक,२.१२३ २९७. अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासा प्रतीति : कल्पना ।-न्यायबिन्दु, १.५ २९८.धर्मोत्तर ने अव्युत्पत्र संकेत बालक के ज्ञान को भी सविकल्पक माना है, यथा-काचित्त्वभिलापेनासंसष्टापि अभिला
पसंसर्गयोग्याभासा भवति, यथा बालकस्याव्युत्पत्रसंकेतस्य कल्पना।-न्यायबिन्दुटीका, १.५, पृ.४४ २९९.द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख ३००. तलनीय-शब्दार्थगाहियद् यत्र तज्ज्ञानं तत्र कल्पना ।-प्रमाणवार्तिक,२.२८७
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