Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
करना अभ्यास है, तो उसका क्षणक्षयादि में अभाव नहीं है। यदि विकल्पवासना का प्रबोधक नहीं होने से क्षणक्षयादि में अभ्यास नहीं है तो अन्योन्याश्रय दोष उपस्थित होता है । प्रकरण - क्षणिक एवं अक्षणिक का विचार करते समय क्षणिक प्रकरण है ही । पाटव- दर्शन (निर्विकल्प)का नीलादि में विकल्प उत्पन्न करना पाटव है, अथवा अधिक स्पष्ट (स्फुटतर) अनुभव का होना पाटव है या अविद्या रूप वासना के नाश होने से आत्मलाभ होना पाटव है ?
प्रथम पक्ष मानने पर तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, क्योंकि पाटव होने पर दर्शन नीलादि में विकल्प का उत्पादक होता है और नीलादि में विकल्प का उत्पादक होने पर दर्शन में पाटव होता है । द्वितीय पक्ष में जो स्फुटता नीलादि के अनुभव में है वह क्षणक्षयादि के अनुभव में भी है, अतः पाटव उसमें भी होना चाहिए। तृतीय पक्ष में अविद्यावासना के नाश होने पर आत्म-लाभ को पाटव कहें तो वह भी अयुक्त है, क्योंकि बौद्धों ने तुच्छ स्वभाव के अभाव को उसमें अंगीकार नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि योगी जन के निर्विकल्प प्रत्यक्ष में भी पाटव रहता है तो उससे विकल्प की उत्पत्ति का प्रसंग आता है, जिससे योगियों के सम्बन्ध में बौद्धों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त - 'योगियों का ज्ञान कल्पना जाल से रहित होता है' ३४३ से भी विरोध उत्पन्न होता है ।
अर्थित्व - अभिलषित होना अर्थित्व है अथवा जिज्ञासित होना ? अभिलषित होने को अर्थित्व कहें तो युक्त नहीं है, क्योंकि कहीं अनभिलषित वस्तु में भी विकल्पवासना का प्रबोध देखा जाता है एवं ऐसा मानने पर चक्रकदोष का भी प्रसंग आता है; यथा वस्तु का निश्चय होने पर उसकी अभिलाषा होगी, अभिलषित (अर्थित्व) होने पर विकल्प वासना का प्रबोध होगा, विकल्प वासना का प्रबोध होने पर विकल्प उत्पन्न होगा एवं विकल्प उत्पन्न होने पर अभिलाष होगा, पुनः अभिलाष होने पर विकल्प वासना का प्रबोध होगा इस प्रकार चक्र के चलने से चक्रक दोष उत्पन्न होगा ।
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यदि जिज्ञासा होना अर्थित्व है, तो वह नीलादि दर्शन के समान क्षणक्षयादि में भी समान रूप से विद्यमान है अतः उसके दर्शन को ही विकल्पोत्पादक क्यों नहीं मान लिया जाता है ? ३४४
बौद्ध - अभ्यासादि की सापेक्षता एवं निरपेक्षता से विकल्प उत्पन्न नहीं होता है । वह शब्द एवं अर्थ की विकल्पवासना से उत्पन्न होता है। वह विकल्पवासना भी अपनी पूर्व वासना से उत्पन्न होती है । इस प्रकार विकल्प-सन्तान के अनादि होने से वह प्रत्यक्ष संतान से पृथक् होता है। इस प्रकार विजातीय दर्शन से विजातीय विकल्प की उत्पत्ति हमें भी अनिष्ट है।
प्रभाचन्द्र - यह कथन असंगत है, क्योंकि यदि दर्शन (निर्विकल्प) विकल्प को उत्पन्न नहीं करेगा तो “यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" अर्थात् जहां दर्शन सविकल्प बुद्धि को उत्पन्न करता है वहां ही
३४३. विधूतकल्पनाजाल - प्रमाणवार्तिक, १.१ एवं २.२८१ ३४४. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० १०० १०२
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