Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जैनदर्शन में त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य का निरसन कर हेतु का एक ही लक्षण स्वीकार किया गया है, और वह है उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव । साध्य के अभाव में हेतु का न रहना ही अविनाभाव है। अविनाभाव के लिए जैन दार्शनिकों ने अन्यथानुपपत्ति शब्द का भी प्रयोग किया है । समस्त जैन दार्शनिक साध्य के साथ अविनाभाव या अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का एक मात्र लक्षण प्रतिपादित करते हैं । जैन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि यदि हेतु में साध्य के साथ अविनाभावित्व है तो वह त्रैरूप्य एवं पांच रूप्य के अभाव में भी साध्य का गमक होता है और यदि उसमें अविनाभावित्व नहीं है तो रूप्य एवं पांचरूप्य के होने पर भी वह साध्य का गमक नहीं होता ।
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बौद्ध दार्शनिक भी हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव या प्रतिबन्ध स्वीकार करते हैं, तथा उसके अभाव में हेतुओं को हेत्वाभास कहते हैं, किन्तु वे अविनाभाव की परिसमाप्ति त्रिरूपता में करते हैं । उनका मन्तव्य है कि जो हेतु त्रिरूप सम्पन्न होता है वही साध्य का अविनाभावी होकर साध्य का ज्ञान कराता है ।
बौद्धमत में हेतु-लक्षण
बौद्ध दर्शन में हेतु के रूप्य का निरूपण सर्वप्रथम दिङ्नाग ने किया । " ९२अ उनके शिष्य शंकरस्वामी अथवा स्वयं दिङ्नाग की रचना न्यायप्रवेश में हेतु को त्रिरूपसम्पन्न प्रतिपादित कर पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूपों का उल्लेख किया गया है।
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धर्मकीर्ति ने त्रैरूप्य के प्रतिपादन में कुछ नवीनता एवं मौलिकता का प्रयोग किया है। न्यायबिन्दु में वे त्रैरूप्य का प्रतिपादन अवधारणार्थक " एव” (ही) शब्द का प्रयोग करते हुए इस प्रकार कहते हैं - 'त्रैरूप्यं पुनर्लिङ्गस्यानुमेये सत्त्वम् एव, सपक्ष एव सत्त्वम्, असपक्षे चासत्त्वम् एव निश्चितम् । ९४ अर्थात् (१) हेतु का अनुमेय में होना ही निश्चित हो (२) हेतु का सपक्ष में ही होना निश्चित हो तथा (३) हेतु का असपक्ष अथवा विपक्ष में नहीं होना ही निश्चित हो । धर्मकीर्ति ने हेतुलक्षण में उस धर्मी को अनुमेय कहा है जिसका विशेष धर्म जानना इष्ट हो । १५ साध्यधर्म की समानता रखने वाले अर्थ को सपक्ष .९६ तथा जो सपक्ष एवं अनुमेय नहीं होता उसे असपक्ष या विपक्ष कहा है। ९७ असपक्ष को वे सपक्ष से अन्य, विरुद्ध या सपक्षाभाव रूप मानते हैं। १८ धर्मोत्तर ने धर्मकीर्ति प्रतिपादित त्रैरूप्य की
९२. त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थदृक् । -- वक्ष्यमाणत्रिलक्षणकाल्लिङ्गाद् । - प्रमाणसमुच्चय एवं वृत्ति, उद्धत, द्वादशारनयचक्र (ज),
भाग-१, परिशिष्ट, पृ.१२२
९३. हेतुस्त्रिरूपः । किं पुननैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वं, सपक्षे सत्त्वं, विपक्षे चासत्त्वमिति । - न्यायप्रवेश, पृ. १ ९४. (१) न्यायबिन्दु, २.४
(२) जैनाचार्य विद्यानन्द ने इसे निम्नानुसार प्रथित किया है
निश्चितं पक्षधर्मत्वं विपक्षेऽसत्त्वमेव च ।
पक्ष एव जन्मत्वं तत्त्रयं हेतुलक्षणम् ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १.१३.१२४
९५. अनुमेयोऽत्र जिज्ञासितविशेषो धर्मी । - न्यायबिन्दु, २.६
९६. साध्यधर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः -- न्यायबिन्दु, २.७
९७. न सपक्षोऽसपक्षः । न्यायबिन्दु, २.८
९८. ततोऽन्यस्तद्विरुद्धस्तदभावश्चेति । - न्यायबिन्दु, २.९
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