Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
में अपूर्वार्थ की ग्राहिता को कथञ्चित् स्वीकार किया है। वे प्रमाण को सर्वथा अर्थ का ग्राही नहीं मानते हैं। प्रभाचन्द्र के अनुसार सर्वथा अपूर्व या अनधिगत अर्थ के ग्राही ज्ञान में संवादकता सिद्ध नहीं होती । इसलिए प्रमाण कथञ्चित् विशिष्ट प्रमा का जनक होकर अपूर्व अर्थ का ग्राही हो सकता है, किन्तु सर्वथा अपूर्व अर्थ का ग्राही नहीं ।
विद्यानन्द ने अपूर्व या अनधिगत विशेषणों को व्यर्थ बतलाकर स्व एवं अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है । ९ अकलङ्क ने भी लघीयस्त्रय में अनधिगत या अपूर्व पद का प्रयोग किये बिना आत्मा एवं अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण का मुख्यलक्षण प्रतिपादित किया है। जैनदर्शन में यही प्रमाण-लक्षण सर्वाधिक प्रतिष्ठित हुआ। प्रमाण का यह लक्षण श्वेताम्बरदार्शनिकों की मान्यता के भी अनुरूप है। श्वेताम्बर जैन दार्शनिक स्मृति आदि के समान धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। इसलिए उनके मत में गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण है । प्रमाण के लिए आवश्यक है कि वह स्व एवं अर्थ का निर्णायक हो । जो ज्ञान स्वयं का एवं अर्थ का सम्यक निर्णायक होता है, वह समस्त श्वेताम्बर दार्शनिकों को प्रमाण रूप में अभीष्ट है। यही कारण है कि अभयदेवसूरि, वादिदेवसूरि आदि जैन दार्शनिकों ने स्व एवं अर्थ की निर्णीति रूप स्वभाव ज्ञान को २ अथवा स्व एवं पर के व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य हेमचन्द्र ने संशयादि अप्रमाणभूत ज्ञान को भी स्वप्रकाशक मानकर स्व शब्द का प्रमाणलक्षण में उपादान नहीं किया है तथा अर्थ के सम्यक निर्णय को प्रमाण कहा है।" निर्णय शब्द के द्वारा हेमचन्द्र ने अर्थज्ञान में संशय, अनध्यवसाय एवं निर्विकल्पक ज्ञान का तथा 'सम्यक' के द्वारा विपर्यय का निराकरण कर दिया है।८५ हेमचन्द्र ने ग्रहीष्यमाण के समान गृहीतग्राही ज्ञान को भी प्रमाण प्रतिपादित कर उसके अनधिगतग्राहित्व विशेषण का निरसन किया है।८६
लघीयस्खाय में अकलङ्क ने अविसंवादक ज्ञान को प्रमाण कहा है। बौद्ध दार्शनिक अर्थक्रियास्थिति युक्त अथवा यथोपदर्शित अर्थ के प्रापक ज्ञान को संवादक कहते हैं , किन्तु अकलङ्क ने अविसंवादक शब्द की व्याख्या बौद्धों से भिन्न प्रस्तुत की है। एक स्थल पर वे प्रमाणान्तरों से ७८. द्रष्टव्य, आगे इसी अध्याय में बौद्धों के प्रथम प्रमाण-लक्षण का प्रभाचन्द्रकृत खण्डन , प. ८५ ७९. तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता । __ लक्षणेन गतार्थत्वाद् व्यर्थमन्यद् विशेषणम् ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१०.७७ ८०. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् । __ ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते ॥-लघीयस्त्रय,६० । ८१. द्रष्टव्य, इसी अध्याय में बौद्धों के प्रथम प्रमाणलक्षण के खण्डन के अनन्तर धारावाहिक ज्ञान की चर्चा, पृ. ८८-८९ ८२. प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावज्ञानमिति ।-तत्वबोधविधायिनी, पृ०५१८ । ८३. स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.२ ८४. सम्यगर्थनिर्णयःप्रमाणम् । स्वनिर्णयः सनप्यलक्षणम, अप्रमाणेऽपि भावात् ।-प्रमाणमीमांसा,१.१.२-३ ८५. तत्र निर्णयःसंशयानध्यवसायाविकल्पकत्वरहितं ज्ञानम्।-प्रमाणमीमांसा, वृत्ति १.१.२ ८६. ग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.४ ८७. अविसंवादकं प्रमाणम्।-लषीयस्त्रयवृत्ति, २२, अकलङ्कअन्यत्रय, पृ०८.१०।
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