Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
इस प्रकार दृश्यमान एवं स्मर्यमाण में अभेद सिद्ध नहीं है, क्योंकि दृश्यमान में स्मृति एवं स्मर्यमाण में दृष्टि नहीं पायी जाती । २८१
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बौद्ध मत में जाति, गुण, क्रिया आदि असत् हैं, कल्पनात्मक हैं, अतः नैयायिकों को लक्ष्य कर बौद्धों ने जाति का भी खण्डन किया है। बौद्ध कहते हैं कि किसी अर्थ का जाति के रूप में प्रत्यक्ष नहीं होता । जाति प्रत्यक्ष एवं कल्पनाज्ञान में बाह्य आकार को धारण करती हुई प्रतीत नहीं होती है। सविकल्पक ज्ञान में भी वर्णसंस्थान के अतिरिक्त कोई जाति प्रतिभासित नहीं होती। इसी प्रकार गुण, क्रिया आदि भी अप्रतिभासित होने के कारण असत् हैं। अतः इनसे विशिष्ट अर्थ के ग्राही प्रत्यक्ष को सविकल्पक कहना भी उचित नहीं है। २८२
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नैयायिक - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से व्यवहार नहीं होता, क्योंकि हेय एवं उपादेय रूप दुःख तथा सुख के साधन का निश्चय हुए बिना दुःख के हान एवं सुख के उपादान रूप व्यवहार का होना शक्य नहीं है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सुख एवं दुःख के साधन का निश्चय करने में सक्षम नहीं है ।
बौद्ध - सविकल्पक प्रत्यक्ष से भी अर्थ में प्रवृत्ति रूप व्यवहार नहीं होता, क्योंकि सुख-दुःख के साधन का निश्चय होने मात्र से कोई उनके उपादान या हान के लिए प्रवृत नहीं होता है। अपितु व्यवहार को उत्पन्न करने की योग्यता के ज्ञान से पुरुष हानोपादान रूप व्यवहार में प्रवृत्त होता है। फल का निश्चय हुए बिना वह योग्यता प्राप्त नहीं होती, और सुख के साधन का परोक्ष रूप से निश्चय करने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो जाता है, अन्यथा अनुमान को भी परोक्षरूपेण निश्चय स्वभाव वाला होने से प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि निश्चयात्मक या सविकल्पक प्रत्यक्ष से वस्तु का निश्चय नहीं होता और उससे प्रतिबद्ध अर्थक्रिया भी उपलब्ध नहीं होती। इसलिए पूर्व अर्थ के अध्यवसाय
स्मृति प्रकट होती हुई अभिलाष को उत्पन्न करती है फिर उससे प्रवृत्ति पैदा होती है। यह प्रक्रिया निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी समान है।
नैयायिक - वस्तु के स्वरूप को प्रतिभासित करने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का अर्थक्रिया से सम्बन्ध अनुभव में नहीं आता, अतः वह प्रवृत्ति नहीं करा सकता। यदि उसका अर्थक्रिया से सम्बन्ध अनुभव में आता है तो उसे सविकल्पक मानना चाहिए । प्रवर्तक हुए बिना प्रत्यक्ष को प्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बौद्धों ने 'प्रामाण्यं व्यवहारेण' कथन द्वारा प्रमाण का व्यावहारिक लक्षण कहा है। बौद्ध - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अभ्यास, पाटव आदि से जिस अंश में विधि एवं निषेध विकल्पों को उत्पन्न करता हुआ पुरुष को प्रवर्तित करता है उसी अंश में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का प्रामाण्य है । निश्चय की अपेक्षा से निर्विकल्पक प्रत्यक्ष व्यवहार का साधक होता है, अतः उसके प्रामाण्य में कोई क्षति नहीं है
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२८१. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २८२. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख
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