Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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मुख्यतः इन्द्रियजन्य ज्ञान को इङ्गित करती है । इसी प्रकार धर्मोत्तर के द्वारा की गयी व्युत्पत्ति "प्रतिगतमाश्रितम् अक्षमिति प्रत्यक्षम्” भी इन्द्रियाश्रित ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में प्रतिपादित करती है ।९ चार प्रकार के प्रत्यक्षों में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष लोकव्यवहार की दृष्टि से प्रमुख प्रतीत होता है। दिइनाग ने प्रमाणसमुच्चय में एक प्रश्न उठाया है कि प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय एवं विषय (अर्थ) दोनों के अधीन है , फिर उसे विषय के आधार पर प्रतिविषय नहीं कह कर प्रत्यक्ष क्यों कहा जाता है ?९° इसका समाधान अभिधर्मकोश में है ९१ जिसे दिइनाग ने भी प्रस्तुत किया है । दिड्नाग का कथन है कि असाधारण कारण के आधार पर व्यपदेश किया जाता है । प्रत्यक्ष ज्ञान में इन्द्रियाँ असाधारण कारण हैं,अतःउनके आधार पर इस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है।९२ विषय तो इन्द्रियज्ञान के साथ मनोविज्ञान,योगिज्ञान आदि में भी साधारण कारण है अतः विषय के आधार पर “प्रतिविषय" व्यपदेश नहीं किया गया ।९३ धर्मकीर्ति ने कहा है कि गमकत्व के आधार पर व्यपदेश किया जाता है । यहाँ इन्द्रियाँ गमक हैं तथा विषय (अर्थ) गम्य । अतः गमक के आधार पर प्रत्यक्ष व्यपदेश किया गया है। जिस प्रकार न्यायदर्शन में इन्द्रिय को प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है उस प्रकार बौद्ध न्याय में नहीं । बौद्धन्याय के अनुसार इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है, इन्द्रिय नहीं,क्योंकि ज्ञान ही अर्थ का प्रापक एवं उसमें प्रवर्तक होता है।
संक्षेप में श्रोत्रादि पांच इन्द्रियों से होने वाला अर्थ का कल्पनापोढ एवं अभ्रान्त ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जा सकता है । श्रोत्र,चक्षु,घ्राण, रसना एवं त्वक् इन पांच इन्द्रियों में से बौद्ध दर्शन के अनुसार घ्राण,रसना एवं त्वक् ये तीन इन्द्रियाँ अर्थ को प्राप्त करके ही उनका ज्ञान कराती हैं, अतः ये तीनों प्राप्यकारी हैं, किन्तु श्रोत्र एवं चक्षु ये दो इन्द्रियाँ अर्थ के किञ्चिद् दूरस्थ होने पर उनका ज्ञान कराने में सक्षम होती हैं, अतः ये दोनों अप्राप्यकारी हैं ।९५
बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण एवं अनुमान का विषय सामान्यलक्षण है । प्रश्न होता है कि इन्द्रियद्वारा क्षणिक स्वलक्षण का परमाणु के रूप में ग्रहण होता है अथवा परमाणुओं के सञ्चित रूप में ? इन्द्रियों द्वारा परमाणु रूप में क्षणिक.स्वलक्षण का प्रत्यक्ष होना शक्य प्रतीत नहीं होता,
८९. न्यायबिन्दुटीका, १.३, पृ० २८ ९०. अथ कस्माद् द्वयाधीनायामुत्पत्तौ प्रत्यक्षमुच्यते न प्रतिविषयम् ।-Dignaga, on perception, संस्कृत टेक्स्ट, Da
९१. तद्विकारविकारित्वादाश्रयाचक्षरादयः । __ अतोऽसाधारणत्वाच्च विज्ञानं तैर्निरुच्यते ॥-अभिधर्मकोश, १.४५ ९२. असाधारणहेतुत्वादक्षैस्तद्व्यपदिश्यते । -प्रमाणसमुच्चय, ४ ९३. प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, पृ०१४ | ९४. प्रमाणवार्तिक, २.१९२ ९५. () चक्षुःश्रोत्रविज्ञानयोरपि यस्मात् प्रत्यक्षत्वमिष्यते, तयोश्च सन्निकर्षजत्वं न संभवति ।-प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ० ४२ (ii) ततश्चाप्राप्यकारित्वात् यबौद्धःश्रोत्रचक्षषोः ।
लक्षणव्याप्तिसिद्धयर्थ संयोगो नेति कीर्त्यते ।। -श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्षसूत्र, ४०
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