Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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तो धारणा अवाय रूप में निर्णीत ज्ञान का संस्कार है,जो स्मृति का हेतु है ।
अवग्रह,ईहा,अवाय एवं धारणा का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में आवश्यक क्रम है,किन्तु शीघ्रता पूर्वक होने से क्रम का भान नहीं होता । जिस प्रकार कमल के सैंकड़ों पत्तों के साथ छेदे जाने पर यह ज्ञान नहीं होता कि कौनसा पत्ता कब छेदा गया,किन्तु उनका छेदन क्रम से ही होता है । २१९ इसी प्रकार अवग्रह आदि भी क्रम से ही होते हैं ,किन्तु शीघ्र सम्पन्न होने के कारण इनके क्रम का बोध नहीं रहता है । आधुनिक युग में टेलीफोन से बात करते समय हमें लगता है कि दूसरे ही क्षण हमारी ध्वनि अमेरिका पहुंच गई है ,किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से वह ध्वनि भी विद्युत् तरंगों में परिणत होकर क्रम से ही जाती है । शीघ्रता पूर्वक जाने से उनके क्रम का हमें बोध नहीं रहता है।
जैन दार्शनिकों द्वारा बौद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण का परीक्षण
जैन दार्शनिकों ने बौद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण में अनेकविध दोषों का उद्भावन कर विकल्पात्मक अथवा स्वपर- निश्यात्मक ज्ञान को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित किया है । दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों के जिन जैनाचार्यों ने बौद्धप्रत्यक्ष का सबल खण्डन किया है उनमें प्रमुख मत्लवादी क्षमाश्रमण, भट्ट अकलङ्क, विद्यानन्द, वादिराज, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि के दार्शनिक ग्रंथों के आधार पर यथाक्रम यहां बौद्ध प्रत्यक्षप्रमाण का खण्डन प्रस्तुत किया गया है। जैनाचार्यों द्वारा प्रमुखरूपेण दिइनाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकरगुप्त, शान्तरक्षित, कमलशील आदि बौद्ध दार्शनिकों के मन्तव्यों को खण्डन का लक्ष्य बनाया गया है । जैन दार्शनिक बौद्ध-प्रत्यक्ष की आलोचना करते समय बौद्धदर्शन के प्रकाण्ड पण्डित प्रतीत होते हैं ,क्योकि अनेकत्र वे बौद्ध प्रत्यक्ष-मीमांसा का बौद्धों के सिद्धान्तों से ही खण्डन करते हुए दिखाई देते हैं तथा अनेकत्र मौलिक तकों का उपस्थापन कर प्रत्यक्ष को सविकल्पात्मक सिद्ध करते हैं।. मल्लवादी क्षमाश्रमण
तार्किक शिरोमणि मत्लवादी क्षमाश्रमण ने दिइनाग के प्रत्यक्ष-लक्षण को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित कर उसका मौलिक एवं विस्तृत खण्डन किया है । टीकाकार सिंहसूरि ने उसकी समुचित व्याख्या की है। पूर्वपक्ष - घटादि की कल्पना से रहित ज्ञान प्रत्यक्ष है । नाम,जाति, गुण,क्रिया एवं द्रव्य के स्वरूप को प्राप्त वस्त्वन्तर का निरूपण करना अथवा अनुस्मरण करना कल्पना है। इस प्रकार की कल्पना से रहित प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रिय के अधिपति प्रत्यय से उत्पन्न होता है। उसका विषय असाधारण अर्थ (स्वलक्षण) होता है । वह शब्दातीत होता है तथा सबके लिए आत्मसंवेद्य होता है।
मल्लवादी के टीकाकार सिंहसूरि ने कल्पना को दो प्रकार का निरूपित किया है (1) यादृच्छिकी
२१९. क्वचित् क्रमस्यानुपलक्षणमेवामाशत्पादात् उत्पलपत्रशतव्यतिबेदक्रमबत्-प्रमाणनयतत्वालोक,२.१७
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