Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
बौद्ध प्रत्यक्षलक्षण के अनुसार अनुपपन्न एवं अप्रत्यक्ष ठहराया है। भट्ट अकलङ्क
अकलङ्कने बौद्ध प्रत्यक्ष-प्रमाण का परीक्षण अपने न्यायग्रंथों में अनेकत्र किया है । लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय एवं न्यायविनिश्चय इसके संदर्भ में प्रमुख ग्रंथ हैं। अकलङ्क का मत है कि विकल्पात्मक अर्थात् निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण होता है, निर्विकल्पात्मक अथवा
अनिश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं कहा जा सकता। वे विकल्प का अर्थ निश्चय करते हुए प्रतीत होते हैं । शब्दसंसर्ग अथवा उसकी योग्यता मात्र को वे विकल्प की संज्ञा नहीं देते । अकलङ्क द्वारा किये गये बौद्ध प्रत्यक्ष-लक्षण के परीक्षण से यह भली भांति स्पष्ट होता है।
अकल के ग्रंथों में बौद्ध -प्रत्यक्ष को पूर्वपक्ष के रूप में विधिवत् स्थापित कर उसका खण्डन नहीं किया गया है, किन्तु वे यथाप्रसंग बौद्धमत का उल्लेख कर अथवा उल्लेख किये बिना ही तत्तत्प्रकरण में सीधा उसका खण्डन करने हेतु प्रवृत हो जाते हैं । वे कुत्रचित् बौद्ध कारिकाओं का किञ्चित् संशोधन कर बौद्धमत का निरसन करते हुए दिखाई देते हैं । मल्लवादी की लेखनी का लक्ष्य जहां केवल बौद्धदार्शनिक दिड्नाग है,वहां अकलङ्ककी लेखनी के लक्ष्य,धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकरगुप्त एवं शान्तरक्षित भी हैं। निरूपणात्मक होने से प्रत्यक्ष सर्वथा निर्विकल्पक नहीं- अपने तत्वार्थवार्तिक में कल्पनापोढ लक्षण का खण्डन करते हुए अकलङ्क बौद्धों से पूछते हैं कि प्रत्यक्ष को सर्वथा कल्पनापोढ कहा गया है, अथवा कथञ्चित् कल्पनापो कहा गया है? यदि सर्वथा कल्पनारहित कहा गया है तो “कल्पना से रहित ज्ञान प्रमाण है" इत्यादि कल्पनाओं से भी उसे रहित होना चाहिए। यदि उसका निरूपण संभव है तो प्रत्यक्ष को सर्वथा कल्पना रहित कहना खण्डित हो जाता है । यदि प्रत्यक्ष कथञ्चित् कल्पनापोढ होता है तो एकान्तवाद का त्याग होने से बौद्धमत का व्याघात होता है तथा प्रकारान्तरसे अनेकान्तवाद का प्रहण हो जाता है ।२३१ निर्विकल्पक ज्ञान से हिताहित का निर्णय नहीं-अकलङ्कका मत है कि जो ज्ञान संव्यवहार के लिए अनुपयोगी है उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता।२३२ अकिञ्चित्कर निर्विकल्पक दर्शन संव्यवहार के लिए अनुपयोगी है अतःवह प्रमाण नहीं हो सकता। प्रमाण से हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार का ज्ञान होता है ।२३३ निर्विकल्पक ज्ञान से हिताहित का ज्ञान नहीं होता ,अतः उसका निश्चय हुए बिना पुरुष उसकी प्राप्ति अथवा परिहार के लिए प्रवृत्त नहीं हो सकता। इस प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं होता । विकल्पात्मक अथवा निश्चयात्मक ज्ञान से हित की प्राप्ति एवं अहित
२३१. द्रव्य, परिशिष्ट-ख २३२. बौद्धदार्शनिक धर्मकीर्ति ने भी कहा है - प्रामाण्यं व्यवहारेण।-प्रमाणवार्तिक, १.७ २३३. प्रज्ञाकरगुप्त ने भी एतदर्थक कदन किया है, यथा हेयोपादेयविषये प्रवर्तकं हि प्रमाणमुच्यते ।'-प्रमाणवार्तिकभाष्य
पू.२२
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