Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जैसा कि कहा गया है-ज्ञान की शाश्वत वायूपता यदि भंग हो जाय तो प्रकाश प्रकाशित न हो सकेगा, क्योंकि वह वायूपता प्रत्यवमर्शात्मक है । वायूपता के अभाव में स्वसंवेदन व्यवहार योग्य नहीं होता। अतः समस्त ज्ञान के वाग्रूप होने के कारण प्रत्यक्ष को सविकल्पक मानना चाहिए।२७७ बौद्ध -वैयाकरणों का मन्तव्य असत् है,क्योंकि प्रत्यक्ष पुरः सन्निहित अर्थ का प्रकाशक होता है। वाग्रूपता पुरःसन्निहित नहीं होती,अतःप्रत्यक्ष में शब्द का ज्ञान नहीं होता,रूप का ज्ञान होता है । शब्द से रहित नीलादि का अवभासन होता है। शब्द की पदार्थात्मता भी उचित नहीं,क्योंकि पदार्थ का प्रत्यक्ष होने के साथ शब्द का प्रत्यक्ष नहीं होता । स्तम्भादि का प्रत्यक्ष शब्द-विविक्त होता है एवं शब्द भी अर्थविविक्त होता है । स्तम्भ का ज्ञान चक्षु से होता है तथा शब्द का श्रोत्र से । अतः इन दोनों का ऐक्य नहीं हो सकता है। चक्ष से रूप का ज्ञान होता है रस का नहीं, इसी प्रकार श्रोत्र से शब्द का ज्ञान होता है चक्षु से नहीं । यदि चक्षु से ही शब्द का भी ज्ञान माना जाए तो फिर भिन्न-भिन्न इन्द्रियां मानने की आवश्यकता नहीं रहती है। फिर तो एक ही इन्द्रिय से पांचों विषयों का ज्ञान हो जायेगा । वस्तुतः समस्त इन्द्रिय-प्रत्यक्ष शब्द रहित (वाचक विकल) होकर ही अपने विषय का ज्ञान करता है , अतः निर्विकल्पक है।
शब्द यद्यपि दृष्टिं से अवभासित नहीं होता है,तथापि स्मृति में प्रतिभासित होता है अतः भिन्न ज्ञान से ग्राह्य अर्थ का वह विशेषण बनता है,यदि ऐसा कहा जाय तो भी उचित नहीं है क्योंकि भिन्न ज्ञान से ज्ञात अर्थ स्वतंत्र रूप से प्रतिभासित होता है तथा उसके अनन्तर प्रतीयमान शब्द उसका विशेषण नहीं बन सकता । एक समय अथवा अनेक समयों में भी शब्द-स्वरूप अपने ग्राहक ज्ञान में स्वतंत्र रूपसे प्रतिभासित होता हुआ विशेषण भावको प्राप्त नहीं होता है,अन्यथा सर्वत्र शब्द विशेषण बन जायेगा।
यदि यह माना जाय कि शब्द से संस्पृष्ट अर्थ का ही प्रहण होता है तो शब्द संकेत से अनभिज्ञ बालक को अर्थ का प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिए। यहां वैयाकरण कहते है कि बालक भी क्या है इस प्रकार शब्दोल्लेख करता है अतः शब्दानुषक्त रूप का ग्रहण होने से प्रत्यक्ष सविकल्पक है । इसका उत्तर देते हुए बौद्ध कहते हैं कि बालक 'क्या है' ऐसा जो ज्ञान करता है वह सामान्य का ही ग्रहण है विशेष का नहीं । विशेष का ग्रहण हुए बिना विशद अवभासक ज्ञान संभव नहीं है । और जब अश्व का चिन्तन करते हुए पुरुष को गाय का प्रत्यक्ष होता है तो उस शब्द विकल्प(अश्वविषयक)के अनुरूप प्रत्यक्ष नहीं होने से ज्ञान की शाश्वत वायूपता (शब्द स्वरूपत्व) नहीं कही जा सकती। गाय का प्रत्यक्ष करते समय 'गो' शब्द का उल्लेख नहीं हो पाता है तथा एक साथ अश्व एवं गाय दोनों के विकल्प नहीं हो सकते हैं।
अतः अर्थ का साक्षात्कार होना प्रत्यक्ष है । उसमें वाग्योजना का स्पर्श नहीं है । लोचनादि इन्द्रियों २७७. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख
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