Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
(३) अध्यारोपात्मकत्वात् -जिस प्रकार माणवक में सिंहत्व का अध्यारोप किया जाता है उसी प्रकार द्रव्यसत् अणुओं में नीलपीत आदि आकार का अध्यारोप होता है, अतः प्रत्यक्ष कल्पनात्मक है। (४) सामान्यरूपविषयत्वात् - प्रत्यक्ष का विषय सामान्य रूप होता है । जिस प्रकार अग्नि सामान्य कारीष,तोष,तार्ण,पार्ण आदि विशेषों के आश्रित होता है,उसी प्रकार प्रत्यक्ष का विषय सामान्य भी अनेक द्रव्यपरमाणुओं के आश्रित होता है। (५) तदतद्विषयवृत्तित्वात् - अनेक परमाणु समूह से प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है। उसमें समूह असत्त्वरूप होता है तथा समूही द्रव्यसत्-परमाणु सत्त्व रूप होते हैं। इन दोनों तद् अतद् के अभेद ग्रहण से नीलाधाकार रूप ज्ञान उत्पन्न होता है । कहा गया है - 'गुणों का परमार्थ रूप दृष्टिगत नहीं होता। जो दृष्टिगत होता है वह माया के समान तुच्छ होता है। २२२ प्रत्यक्ष में इस प्रकार सद् एवं असद् दोनों का अभेद ग्रहण होने से वह विकल्पात्मक है।
मल्लवादी निष्कर्षरूपेण बौद्ध प्रत्यक्ष को कल्पनात्मक सिद्ध करते हैं । वे प्रतिपादित करते हैं कि अनुमानादि ज्ञान जिस प्रकार कल्पनात्मक होने से अप्रत्यक्ष हैं,उसी प्रकार इन्द्रियज्ञानादि बौद्ध प्रत्यक्ष भी कल्पनात्मक होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं कहे जा सकते।२२३ प्रत्यक्ष की अव्यपदेश्यता का खण्डन-दिइनाग प्रत्यक्ष को नाम,जाति,गुण,क्रिया एवं द्रव्य की योजना से हीन अर्थात् अव्यपदेश्य या अनभिलाप्य प्रतिपादित करते हैं । मल्लवादी ने उसका भी खण्डन किया है । मल्लवादी कहते हैं कि प्रत्येक रूप परमाणु के भिन्न-भिन्न होने पर उनके अविविक्त रूपसंघात तत्त्व का इन्द्रिय से सन्निकर्ष होने पर जो आलम्बन विपरीत ज्ञान होता है उसे बौद्ध अव्यपदेश्य मानते हैं,किन्तु शब्द से अभिधेय को ही व्यपदेश्य नहीं कहा जाता, अपितु हेतु अथवा अर्थान्तर से अधिगम्य अर्थ को भी व्यपदेश्य कहा जाता है । बौद्ध के द्वारा भी जो इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष कहा गया है वह संचयग्रहण रूप निमित्तान्तर से जन्य है अतः वह भी अभिलाप्य अथवा व्यपदेश्य है। २२४
बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने अपने प्रत्यक्ष-लक्षण में अभिधर्मफ्टिक के जिन दो वाक्यों “चक्षुर्विज्ञानसमंगी नीलं विजानाति तो तु नीलमिति” तथा “अर्थेऽर्थसंज्ञी न त्वर्थे धर्मसंज्ञीति” को आधार बनाया है २२५,उनका भी मल्लवादी ने खण्डन किया है। "चक्षुर्विज्ञानसमङ्गी नीलं विजानाति नो तु नीलमिति" वाक्य का खण्डन - प्रत्यक्ष की उत्पत्ति के लिए जो सञ्चितालम्बनाः पञ्चविज्ञानकाया: ' सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है उसका
२२२. गुणानां परमं रूपं न दृष्टिपथमृच्छति ।
यत् तु दृष्टिपथप्राप्तं तन्मायेव सुतुच्छकम् । षष्टितन्त्र, उद्धृत, दादशारनयचक्र (ज) भाग - १, पृ. ६३ २२३. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख २२४. द्रष्टव्य, परिशिष्ट -ख २२५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,.१४
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