Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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मन के द्वारा होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर उसे भी प्रत्यक्ष-प्रमाण की कोटि में स्थापित किया है । यहां प्रत्यक्ष -लक्षण की दोनों परम्पराओं पर विचार किया जा रहा है । (1) आगमिक धारा
आगम की मान्यता है कि आत्मा में स्वभावतः स्व को एवं समस्त पदार्थों को जानने की अनन्तशक्ति विद्यमान है ,किन्तु ज्ञानावरण नामक कर्म के उदय से आत्मा के जानने की शक्ति उसी प्रकार आच्छादित हो जाती है जिस प्रकार सूर्य मेषों से आच्छादित होने के कारण समस्त पदार्थों को प्रकाशित नहीं कर पाता । यद्यपि मेघाच्छन्न होते हुए भी सूर्य की प्रकाशन शक्ति समाप्त नहीं होती है ,उसी प्रकार कर्म से आवरित आत्मा में जानने की शक्ति समाप्त नहीं होती है ,तथापि ज्ञानावरण कर्म के उदय से वह शक्ति ढक जाती है । जब ज्ञानावरण कर्म में आंशिक कमी (क्षयोपशम) होती है अथवा उसका सम्पूर्ण नाश (क्षय) होता है तो आत्मा के जानने अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान करने की शक्ति प्रकट होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से स्व एवं बाह्यार्थ का ज्ञान करता है । जब यह ज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होता है तो परोक्ष कहलाता है तथा जब इन्द्रियादि की सहायता के बिना सीधे आत्मा द्वारा होता है तो प्रत्यक्ष कहलाता है ।
पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति का निर्देश करते समय ‘अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा किया है तथा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से आत्मा में जो ज्ञान प्रकट होता है उसे प्रत्यक्ष कहा है ।१२४ इस प्रकार आत्मा में बिना पर की सहायता के स्वतः प्रकट होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है । जैनागमों में पांच ज्ञानों का वर्णन मिलता है ।१२५ वे पांच ज्ञान हैं -मतिज्ञान (आभिनिबोधिक ज्ञान),श्रुतज्ञान,अवधिज्ञान,मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान ।इनमें से मति एवं श्रुतज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता से प्रकट होते हैं ,अतः ये दोनों ज्ञान आगमसरणि में परोक्ष हैं तथा अवधि, मनः पर्याय एवं केवलज्ञान आत्ममात्र सापेक्ष हैं, इसलिए इन तीनों को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है ।१२६ भट्ट अकलङ्कदेव ने यद्यपि इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले ज्ञान को भी प्रत्यक्ष की श्रेणी में रखा है तथापितत्वार्थवार्तिक में उन्होंने आगमानुकूल प्रत्यक्ष का लक्षण निरूपित किया है । तदनुसार इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय (मन) की अपेक्षा से रहित,व्यभिचार विहीन जो साकार ज्ञान है,वह प्रत्यक्ष है ।१२७
१२४.(१) अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षम्।
-सर्वार्थसिद्धि१.१२, पृ०७२ (२)जैन दार्शनिक भद्रबाह एवं जिनमद्र ने भी अक्ष शब्द का अर्थ जीव या आत्मा करके प्रत्यक्ष की व्याख्या की है।
क्रमशः यथा-जीवो अक्खो तं पइ जं वट्टई तं तु होइ पच्चक्खं ।-उद्धत, न्यायावतारविवृति, पृ०१५ जीवो अक्खो अथव्वावणभोयणगणिओ जेण।
तं पई वट्टइ णाणं जं पच्चक्खं तं तिविहं ॥- विशेषावश्यकभाष्य, गा० ८९ १२५. ज्ञान वर्णन के लिए द्रष्टव्य हैं - नन्दीसूत्र, १-४३, भगवतीसूत्र, ८.२.३१७, राजप्रश्नीयसूत्र, ६०, षट्खण्डागम
५.५.२१-८३ धवला पुस्तक, १३, पृ० २०९-३५३ १२६. आधे परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् । -उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र , १.११-१२ १२७. इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।-तत्त्वार्थवार्तिक, १.१२,१०५३
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