Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रत्यक्ष-प्रमाण
इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष भेद किये गये हैं तथापि इन्द्रिय ज्ञान की प्रत्यक्ष रूप में प्रतिष्ठा उस काल तक नहीं हुई थी, क्योंकि नन्दीसूत्र के चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर इन्द्रियज्ञान को परमार्थतः परोक्षज्ञान ही मानते हैं। फिर भी नन्दीसूत्र के रचयिता देववाचक ने इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्ष की श्रेणी में रखकर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को स्वीकार करने हेतु बीज वपन कर दिया था। उनके अनन्तरजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्पष्ट शब्दों मे इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया है। अकलङ्कद्वारा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को स्वीकार करने का यही आधार रहा है। नन्दीसूत्र में मनोजन्य ज्ञान को इन्द्रियज्ञान के साथ प्रत्यक्ष की श्रेणी में परिगणित नहीं किया गया था, किन्तु जिनभद्रगणि ने उसे भी इन्द्रियज्ञान के साथ प्रस्तुत कर दोनों को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया है । परिणाम स्वरूप अकलङ्क सहित सभी दार्शनिकों ने इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय (मन) के निमित्त से जन्य प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। नन्दीसूत्र में प्रतिपादित नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष को दर्शन-ग्रन्थों में पारमार्थिक प्रत्यक्ष नाम मिला है।
इस प्रकार आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान के साथ इन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय जन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कोटि में स्थापित करने पर प्रत्यक्ष के एक ऐसे सामान्य लक्षण की आवश्यकता अनुभव हुई जो दोनों प्रकार के प्रत्यक्षों में अभिव्याप्त हो सके । दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलङ्कने इस आवश्यकता की पूर्ति करते हुए प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्"३२ के द्वारा विशद अथवा स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है । अकलङ्क के इस प्रत्यक्ष-लक्षण का विद्यानन्द ३३ माणिक्यनन्दी ३४ अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेव, १३५ हेमचन्द्र ३६ आदि समस्त दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन दार्शनिकों ने अनुसरण कर प्रत्यक्ष को विशदज्ञानात्मक प्रतिपादित किया है । प्रत्यक्ष में प्रमाण सामान्य का लक्षण विद्यमान होने से वह स्व एवं अर्थ का निश्चायक तो होता ही है तथा प्रत्यक्ष होने से विशद भी होता है । जैन दार्शनिक अकलङ्क ने न्यायविनिश्चय में प्रत्यक्ष प्रमाण का विस्तृत लक्षण प्रदान किया है,जिसमें प्रत्यक्ष-प्रमाण की समस्त विशेषताओं का संकलन हो जाता है । प्रस्तुत सन्दर्भ में यह लक्षण विचारणीय है
प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा ।
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्पवेदनम् । ३७ जो ज्ञान अञ्जसा स्पष्ट हो,साकार हो,द्रव्य पर्यायात्मक एवं सामान्य विशेषात्मक अर्थ को जानता हो तथा स्वप्रकाशक हो,वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । प्रत्यक्ष के इस लक्षण में अकलङ्कने प्रमाण के सामान्य -लक्षण की भी कुछ विशेषताओं का प्रतिपादन किया है, यथा उसके द्वारा द्रव्यपर्यायात्मक एवं १३२. सिद्धिविनिश्चय, १.१९, अन्यत्र भी कहा है - प्रत्यक्षं विशदज्ञानम्।-प्रमाणसंग्रह २ १३३. विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षम् ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ० ३७ १३४.विशदं प्रत्यक्षम् ।-परीक्षामुख,२.३ १३५.स्पष्टं प्रत्यक्षम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक २.२ १३६. विरादः प्रत्यक्षम्।-प्रमाणमीमांसा, १.१.१३ १३७.न्यायविनिश्चय
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