Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन - परम्परा
किया। अकलङ्क ने तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक की रचना की । तत्त्वार्थसूत्र पर सिद्धसेनगण एवं हरिभद्र की भी टीकाएँ हैं । प्रस्तुत अध्ययन में सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक का उपयोग किया गया है। राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक का विशेष विवरण आगे अकलङ्क एवं विद्यानन्द की रचनाओं में किया जायेगा । सर्वार्थसिद्धि पांचवीं शती के उत्तरार्द्ध की रचना है, ऐसा पं० फूलचन्द शास्त्री ने प्रतिपादित किया है । १५३
कुन्दकुन्द
जैनदर्शन में कुन्दकुन्द एक महत्त्वपूर्ण आचार्य हुए हैं, जिन्होंने व्यवहार एवं निश्चय नय का विवेचन कर व्यवहार को परमार्थ के उपदेश के लिए सहायक माना है । १५४ वे ज्ञान का विवेचन करते हुए सर्वज्ञ को परमार्थतः आत्मज्ञ मानते हैं । १५५ ज्ञान के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द की प्रमुख देन यह रही कि उन्होंने ज्ञान को स्वपर प्रकाशक सिद्ध किया है१५६ और ज्ञान की यह स्वपर-प्रकाशकता ही प्रकारान्तर से प्रमाण की स्वपर - प्रकाशकता के रूप में आदृत हुई । १५७
आचार्य कुन्दकुन्द का समय विद्वज्जगत् में प्रथम शती ई० प्रसिद्ध है, किन्तु मधुसूदन ढाकी ने अनेक प्रमाण देकर इन्हें छठी सातवीं शती का आचार्य माना है । १५८ आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं।
सिद्धसेन दिवाकर (पांचवी शती)
सिद्धसेन अनेकान्तवाद के साथ जैन-न्याय के भी प्रतिष्ठापक आचार्य हैं। जैनपरम्परा में सिद्धसेन ही सर्वप्रथम प्रमाणविषयक शास्त्र न्यायावतार की रचना की। न्यायावतार के अतिरिक्त उनका दार्शनिक ग्रंथ सन्मतितर्कप्रकरण है जिसने दार्शनिक क्षेत्र में ख्याति अर्जित की है। ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि सिद्धसेन ने बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं की रचना की थी, १५९ किन्तु उनमें से अब २२ ही उपलब्ध हैं। इनमें सात द्वात्रिंशिकाएं स्तुत्यात्मक हैं, दो समीक्षात्मक हैं तथा शेष दार्शनिक एवं वर्णनात्मक हैं ।
१५३. सर्वार्थसिद्धि, प्रस्तावना, पृ० ८७-८८
१५४. तह ववहारेण विणा परमत्युवएसणमसक्कं । - समयसार, ८ १५५. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि जियमेण अप्पाणं । - नियमसार, १५८
३५
१५६. तम्हा सपरपयासं जाणं :- नियमसार, १७१
१५७. स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.१
१५८. द्रष्टव्य, The date of kundakundacarya, pt. Dalsukhbhai Malvaniya Falicitation Volume, I. १५९. (१) तस्सागयस्स तेणं पारद्धा जिणथुई समन्ताहि ।
बत्तीसाहिं बतीसियाहिं उद्दामसद्देण ॥
(२) सिद्धसेणेण पारद्धा बत्तीसियाहिं जिणथुई
-कुडंगेसरसीसाओ नीसरंतीपाससामिपडिया कमंकमेण य बत्तीसइमबत्तीसियासमत्तीए पडिपुण्णं, तं च दट्टूण विम्हिओ राराई लोओ । – कथावली, उद्धृत सन्मति
प्रकरण, हिन्दी प्रस्तावना, पृ० ३३-३४
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