Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ विश्व शान्ति में भ० महाबोर के सिवान्तों की उपादेयता झोरता है उसकी आत्यान्तिक दृष्टि के सामने प्रश्न चिन्ह विकास कर सकता है कि पामर आत्मा परमात्मा बन लगाता है। इस विचार शैली में उदारता, व्यापकता, सहि- जाता है, तीन लोक का स्वामी बनकर अनन्तकाल के लिए ष्णुता है जिससे दूसरे के दृष्टिकोण को समझा जा सके। अनन्त सुख का पान करता है। इससे समझौते की भावना उत्पन्न होगी। दूसरे के प्रति जैन तीर्थङ्करों का इतिहास व जीवन आकाश से पृथ्वी आदर व प्रामाणिकता का भाव उत्पन्न होगा। पर उतरने का नही अपितु पृथ्वी से ही आकाश की ओर स्यादवाद अनेकांत का समर्थक उपादान है। सत्य कथन जाने का उपक्रम है। नारायण को नर का शरीर धारण को वैज्ञानिक पद्धति है । आग्रहों के दायरों में सिमटा जो नही करना पड़ता वरन् नर ही नारायण बनता है। मानव था उसकी अंधेरी कोठरी को अनेकांतवाद ने अनन्य महावीर ने अपनी जीवन साधना द्वारा प्रत्येक व्यक्ति लक्षण सम्पन्न सत्य प्रकाश से आलोकित किया, आग्रह एवं को यह प्रमाण दिया कि यदि वह साधना कर सके, राग, असहिष्णुता के दरवाजों को स्याद्वाद् की चाबी ने खोल द्वप को छोड सके तो कोई ऐसा कारण नही कि वह प्रगति दिया । यदि हम प्रजातन्त्र मे वैज्ञानिक पद्धति से सत्य का नहीं कर सके। जब प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है साक्षात्कार करना चाहते हैं तो उसका साधन अनेकांत और तत्वत. कोई किसी की प्रगति मे बाधक या साधक दृष्टि व स्याद्वाद प्रणाली होगी। नही तो फिर सघर्ष का प्रश्न ही कहां उठता है । इस तरह जैन शाश्वत जीवन पद्धति तथा जड एव चेतन के उन्होने एक सामाजिक दर्शन दिया। रहस्यो को जानकर आत्मानुसधान की प्रक्रिया है। व्यक्ति ___व्यक्तिगत स्तर पर आचार के लिए पाच अणुव्रत, स्वयं अपने प्रयासो से ऊपर उठता है, यह एक क्रान्तिकारी विचार के लिए अनेकात व वाणी के लिए स्याद्वाद का विचार है। इसको यदि हम आधुनिक सन्दर्भो मे व्याख्यापित कर सके तो निश्चित रूप से विश्व के ऐसे समस्त जीवन में समावेश हो। सामाजिक स्तर पर विचार सहिप्राणी जो धर्म और दर्शन से निरन्तर दूर होते जा रहे है ष्णुता समान अधिकार व्यक्ति स्वानाय की स्वीकृति आतरिक मामलो मे हस्तक्षेप आवश्यक है। समाज रचना इनसे जुड़ सकते है। ऊपर से लदनी नही चाहिए । किन्तु उमका विकास सहभगवान महावीर का दूमरा क्रान्तिकारी विचार है योग पद्धति से सामाजिक भावना की भूमि पर होना कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचरण से महान बनता है चाहिये तभी सर्वोदयी समाज की रचना हो सकती है। इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होने मनुष्य समाज की जब तक इन सर्वपमता मूलक अहिंमक आधारों पर समाज दीवारों को तोड फेका । आज भी मनुष्य मनुष्य के बीच रचना का प्रयास न होगा तब तक विश्व शान्ति स्थापित दीवारी को तोड़ डालता है। इस सिद्धान्त से जातिगत न हो सकेगी। तीर्थकर महावीर और बोधिसत्व बुद्ध के विष जिसने समाज की शान्ति मे एक विष घोल रखा है, देश भारत मे पंचशील व गुट निरपेक्षता की नीति अपदूर हो सकता है। तीसरा महत्वपुर्ण विचार यह है कि नायी है और इसके पीछे भावना है मानव के सम्मान व प्रत्येक व्यक्ति समान है, ऊचा उठ सकता है और परमात्मा अहिंसा मूलक आत्मौपम्य की हार्दिक श्रद्धा । जीवन का बन सकता है। महावीर ने मानवीय महिमा का जोरदार सामन्त्रस्य, नव समाज निर्माण और विश्व शांति का यही सपर्थन करते हुए कहा कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देव भी नमस्कार करते है। इसे यदि मूल मन्त्र है, इसका नाम लिए बिना कोई विश्व शांति आध्यत्मिक भाषा मे कहा जाए तो सम्यक दृष्टि श्रावक की बात भी नही कर सकता । को देवताओं के राजा इन्द्र नमस्कार करते हैं, महिमावन्त -२ घ २७, जवाहर नगर, होते हैं। व्यक्ति अपनी ही जीवन साधना द्वारा इतना जयपुर

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