Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ भावक की म्यारहवी प्रतिमा प्रवेश करे अर्थात् एक मिक्षा के नियम वाला उत्कृष्ट श्रावक यह 'अचेलक' शब्द ऐसा है जिसे दिगम्बर व श्वेताम्बर चर्या के लिए किसी श्रावक के घर जावे । यदि इस प्रकार दोनों सम्प्रदाय मानते हैं और इसका प्रयोग मुनि के लिए भिक्षा न मिले तो उसे फिर किसी के घर न जाकर उप- करते हैं । भेद इतना है कि दिगम्बर 'अ' उपसर्ग का अर्थ वास का नियम कर लेना चाहिए। पश्चात् गुरु के समीप सर्वथा निषेध रूप में और श्वेताम्बर सर्वथा निषेध और जाकर विधि पूर्वक चतुर्विधि आहार का त्याग कर प्रत्या- अल्प स्वीकृति दोनो अर्थों में करते हैं । इसीलिए उनमें ख्यान कर पुन: प्रयत्न के साथ सर्व दोषों की आलोचना जहा चेल-वस्त्र का सर्वथा निषेध है वहां मुनि 'जिन-कल्पी' करनी चाहिए। है और जहां अल्प चेल-स्वीकृति है वह मुनि स्थविरकल्पी' उक्त कथन से कई बातें समक्ष आती हैं है-हैं दोनों ही मुनि । पर, यह बात दिगम्बरों को मान्य १. छुरे से हजामत करना। नही, वे सर्वथा वस्त्र त्याग मे ही मुनि पद स्वीकारते हैं। २. उपकरण से स्थान संशोधन । ३. पात्र प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर मालूम होता है जब श्वेताम्बरों द्वारा किंचित् वस्त्र प्रवेश करना। वाले को भी 'अचेलक' घोषित किया गया तो दिग४. भिक्षा स्वयं मांगना । म्बरो ने किंचित् वस्त्र वाले के लिए एक नया सम्बोधन ५. कई घरों से (भी) माँगना । चुन लिया और वह सम्बोधन 'ऐलक' था। इससे ईषत् ६. बैठकर भोजन करना आदि । इस प्रतिमाधारी से अर्थ में 'अ' का प्रयोग भी मान्य हो गया और मुनि रूप द्वितीयोत्कृष्ट प्रतिमाधारी मे जो भिन्नता बनलाई है वह के गृहण का परिहार भी। इससे यह भी ध्वनित हुआ कि इस प्रकार है ईषत् वस्त्र वाला श्रावक ही है, मुनि नही । स्मरण रहे कि 'एमेव होइ विदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज णियमेण। लाचार्य' शब्द भी प्राकृत व्याकरण के उक्त 'सूत्र' से ही लोच धरिज्ज पिच्छं भुंजिज्जो पाणिपत्तमि ॥३१॥' निष्पन्न है-अचेलकाचाय, ऐलकाचार्य, ऐलाचार्य --द्वितीयोत्कृष्ट प्रतिमाधारी भी इसी प्रकार होता है एक ही शब्द के एक ही शब्द के विभिन्न रूप है और प्राकृत के 'कला-चपरन्तु उसमे इतनी विशेषता है कि वह नियम से लोंच ज-सद-यवां प्रायोलुक' सूत्र से बंधे हैं, तीनों ही रूप विकल्प करता है, पीछी धारण करता है और पाणिपात्र में आहार से लाप क है। करता है। पूर्वाचार्यों के व्याख्यान से ऐसा भी ध्वनित होता है उक्त स्थिति में सर्वप्रथम विचार यह उठता है कि कि अन्य प्रतिमाओं की भांति ग्यारहवीं प्रतिमा भी एक जब पूर्वाचार्यों ने सभी प्रतिमाओ का वर्णन अभेदरूप मे एक अभेद रूप है, जो अपेक्षा भेदो से नाम भेदों में विभक्त कर एक प्रकार का ही किया है और ग्यारहवी प्रतिमा के ली गई है। इसे मुनि पद के सामीप्य और मुनिपद से नामान्तर क्षुल्लक और त्यक्तागार घोषित किए है तब छोटा-नीचा होने की अपेक्षा क्षुल्लक, घर छोड़ने की अपेक्षा ग्यारहवी प्रतिमा के पृथक्-२ दो भेद करने की आवश्यकता त्यक्तागार और ईषद् वस्त्र होने से ऐलक कहा गया है। क्यों पड़ी और ऐलक शब्द कहा से आया ? वस्तुत: 'ऐलक' शब्द अचेलक (सर्वथा वस्त्र त्यागी) दि. विचारने पर प्रतीत होता है कि 'लक' शब्द 'अचे- मुनि का ही नामान्तर है जिसे 'अ' के ईषत् अर्थ में श्रावक लक' शब्द का प्राकृत व्याकरण प्रसिद्ध लघु रूप है। प्राकृत की ग्यारहवी प्रतिमा में स्थान देकर प्रतिमा को दो व्याकरण के सत्र क ग च ज त द प यवां प्रायो लुक' के भागों में विभक्त कर दिया गया है। अनसार दो स्वरों के मध्यवस्थित व्यंजन का विकल्प से जहा तक श्वेताम्बर परंपरा के साधुओं का प्रश्न है, अदर्शन (लोप) हो जाता है। फलत अ++एलक में वे साधारणन. श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमा के रूपान्तर अ+और ए के मध्य का 'च्' लुप्त हो गया तथा अ+ए प्रतीत होते हैं, अपितु उस रूप में भी स्पष्ट शिथिलता ही को वृद्धि रूप मे ऐ होने पर ऐलक रूप बन गया। परिलक्षित होती है जैसे-ढेर से वस्त्र, ढेर से पात्र, कई

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