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६ वर्ष ३६, कि०२
अनेकान्त
हा था"। वस्तुतः अकलङ्क सम्बन्धी अनुश्रुतियां, ७वी कलङ्कदेव की पूर्वावधि ६४३ ई० और उत्तरावधि अधिक शताब्दी ई. के मध्य भाग का राजनैतिक इतिहास, उस से अधिक ७२० ई० हो सकती है। वे सुनिश्चित रूप से यग की धार्मिक स्थिति तथा अन्त साम्प्रदायिक सम्बन्ध सातवी शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे हैं। चीनी यात्री हुएनसांग का यात्रावृत्त, अभिलेखीय साध्य अकलदेव की भारतीय दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में मब का स्पष्ट सकेत यही है कि बौद्धाचार्यों के साथ अक- अप्रतिभ देन के मूल्यांकन के लिए महाकवि धनञ्जय लदेव का वह इतिहास प्रसिद्ध वाद ७वी शती ई० के (लगभग ७०० ई.) की नाममाला का प्रसिद्ध श्लोक मध्योत्तर एक-दो दशको के भीतर ही किसी समय कलिंग पर्याप्त हैदेश के रत्नसचयपुर मे हुआ था, और अपने भक्त जिस
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । राजन् साहमत्तुग की सभा मे आचार्य ने उक्त वाद विजय
धनञ्जय-कवे. काव्य त्रिरत्नमपश्चिमम् ॥ का वर्णन सुनाया था, वह वातापी का चालुक्य सम्राट ध्यातव्य है कि इसी 'नाममाला' का एक पद्य स्वामी विक्रमादित्य प्र० (६४२.८१ ई०) ही था।
वीरसेन ने अपनी धवला टीका (७८० ई०) मे भी उद्धृत अनुथति के अनुमार अकलकदेव के गुरु का नाम किया है । इसके अतिरिक्त स्वय अकलदेव के 'प्रमाण रविगुप्त था। क्या आश्चर्य है जो वह गुरु चालुक्य पुल- सग्रह' का मंगल श्लोक आठवी शती ई० से ही शिलाकेशिन द्वि० को एहोल प्रशस्ति (६३४ ई.) के इतिहास लेखो में प्रयुक्त होने लगा और हवी आदि आगामी प्रसिद्ध कवि शिरोमणि तथा स्वय राजा के श्रद्धास्पद शताब्दिों मे तो इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि अत्यल्प रविकीति से अभिन्न हो। वह बौद्ध विद्यालय जहा अक- परिवर्तन के साथ अनेक शैवादि जैनेतर शिलालेखो में लडू ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था, चालुक्य राज्य भी प्रयुक्त हुआ पाया जाता है । आचार्य प्रवर अकलंकदेव मे ही स्थित कन्हेरी का प्रसिद्ध बौद्ध केन्द्र रहा हो सकता के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व का समुज्ज्वल प्रतीक वह
अमर श्लोक है :इस प्रकार जैन न्याय के सर्वोपरि प्रस्तोता, वादी- "श्रीमत् परमगंभीर स्याद्वादामोघलांछन । सिंह, देव, देवेन्द्र, पूज्यपाद आदि विरुदधारी श्रीमद् भट्टा- जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन शासनम् ॥"
___सन्दर्भ-सूची १. देखिए-ज्यो० प्र० जैन जैनासोर्मेज आफ दी हिस्ट्री ६. वही, ११३८ ई० के एक शि० ले० (एपी० कर्णा..
आफ एन्सेन्ट इडिया (दिल्ली १९६४), पृ० १६३ । भा० २, न० ९७, पृ० १७) मे तो इनके विषय मे २. वही।
कहा है कि जो "जिनशासन प्रारम्भ से ही बेदाग ३. देखिए-शोभाङ्क-१ (१७ जुलाई ५८) पृ० १३-१५, रहता आया था, वह अब और अधिक निर्मल रूप
जहा हमने अकलक नाम के बीस विभिन्न गुरुओ का मे देदीप्यमान हो उठा।' परिचय दिया है तथा देखें-न्यायकुमुदचन्द्र, भा० १, ७. जीयाच्चिरमलङ्क ब्रह्मा लघुहब्व नृपति वरतनयः । प्रस्तावना पृ० २५॥
अनवरतनिखिलविद्वज्जन नुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्य ।। ४. ज्यो० प्र० जैन, पूज्यपाद आफ दी चालुक्यन रेकार्डस' -देखिए हीरालाल, कैटे मैनुष्क्रिट्स भूमिका पृ. २६
जना एन्टीक्वेरी, भा० १६, न० १, पृ० १६ आदि। ८. देखिए, एपी० कर्णा०, भा० २, भूमिका पृ० ४८, ८४, ५. डा० स० ० विद्याभूषण, ए हिस्टरी आफ दी मेडि- फ्लीट, डायनेस्टीज आफ कनारीज डिस्ट्रिक्ट्स (प्र. वल स्कूल आफ इडियन लाजिक, तथा न्यायकुमुद- सं०), पृ० ३२-३३; आर० नरसिंहाचर, इन्स० एट चन्द्र, (भा० १ व २) अकलक ग्रथत्रय एव तत्त्वार्थ श्र० बे० गो० (द्वि० सं०), भूपिका । राजवातिक की प्रस्तावनाएं।
तिथ्यांकित पद्य