Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 119
________________ आचार्य भी उल्लेख किया है कि जीवादि छहो इन्य परस्पर एकदूसरे में प्रवेश करते हैं, अवकाश देते हैं और एक दूसरे से मिलते हैं तो भी वे मिल कर एक नहीं होते हैं, क्योंकि वे कभी अपने स्वभाव का त्याग नहीं करते हैं।" सभी द्रव्यों का विशेष स्वभाव होता है जिससे उनमे भेद बना रहता है। एक प्रश्न के उत्तर में आचार्य ने बतलाया है कि यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश एक क्षेत्रावगाही है अर्थात् एक ही स्थान में रहते हैं और अमूर्त हैं लेकिन आकाश को गति और स्थिति का कारण नही माना जा सकता है अन्यथा गति स्वभाव वाले सिद्ध जीव को लोकाय भाग में नही रुकना चाहिए।" लेकिन वे लोकाप्र भाग में स्थिर हो जाते हैं। इससे सिद्ध है कि आकाश पति और स्थिति स्वभाव वाला नही है । आकाश से भिन्न गति और स्थिति स्वभाव वाले धर्म और अधर्म ग्रन्य स्वतन्त्र हैं ।" गति और स्थिति का कारण आकाश को मानने से अलोक की हानि और लोक की वृद्धि हो जायेगी अर्थात् लोक अलोक का विभाग नष्ट हो जायेगा ।" अन्त मे आचार्य ने धर्म-अधर्म और आकाश को अप्रूवम्भूत, समान परिमाण वाले और विशेष स्वभाव वाले होने से कयचित् भिन्न और कथचित् अभिन्न कहा है ।" ३. प्राम-निर 'कुन्दकुन्द की : जैन दर्शन को देन वैभव (ज्ञान वैभव ) के द्वारा एकत्व शुद्ध आत्मा का निरूपण करूंगा ।" इसी के जानने से मोक्ष मिल सकता है।" आचार्य कुन्दकुन्द के आत्म निरूपण द्वारा हम देखेंगे कि उनका आत्मवाद बौद्ध दर्शन से किस प्रकार भिन्न है । बौद्ध दर्शन में विशेष कर पालि- त्रिपिटक 'मलिन्दपञ्हो' मे यह तो प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा क्या नही है, लेकिन वहां यह नहीं बतलाया गया कि आत्मा क्या है यही कारण है कि उनको अनात्मवादी कहा जाता है। । । कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में विशेषकर समयसार म आत्मा का जो विवेचन उपलब्ध है वह आगमो में उपलब्ध नहीं है। आचार्य ने आत्मा का स्वरूप विवेचन निश्वय और व्यवहार नय की पद्धति से किया है जो अद्वितीय है। उन्होने शुद्ध निश्चय नय के द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन किया है और व्यवहार नय के द्वारा ससारी आत्मा का, जो शुद्ध आत्मा को समझने के लिए आवश्यक है।" क्योंकि कर्म उपाधि से उत्पन्न गुण और पर्यायों से रहित बुद्ध आत्मा ही उपादेय है।" एकत्व विभक्त शुद्ध आत्मा की प्राप्ति सुलभ नहीं है, क्योंकि सासारिक जीवों ने काम, भोग और बन्ध की कथा सुनी है, उससे परिचित हैं और अनुभव भी किया है। लेकिन शुद्ध आत्मा की कथा कभी न सुनी है, न उससे परिचित हैं और उसका न अनुभव किया है।" इसलिए वे कहते हैं कि मैं अपने भावात्मक शैली द्वारा श्रात्मस्वरूप निरूपरण इस शैली के द्वारा उन्होंने बतलाया है कि शुद्ध आत्मा क्या है, कैसा है । विभिन्न गाथाओ द्वारा बतलाया कि शुद्ध आत्मा ज्ञायक स्वरूप, उपयोग स्वरूप, शुद्ध, दर्शनज्ञानमय अरूपी (अमूर्तिक) पर द्रव्य से भिन्न, " रूप-रसगन्ध से रहित अव्यक्त, चैतन्य गुण से युक्त शब्द रहित, इन्द्रियो द्वारा अग्राह्म निराकार" जन्म-जरा और मरण से रहित आठ गुणो से युक्त है"। मिद्धो की तरह शरीर रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा" स-स्थावर से भिन्न है" । शुद्ध आत्मा निर्दण्ड निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कल, निरालम्ब' नीराग, निदोष, निर्मूह, निर्भय, निर्ग्रन्थ नि शल्य, निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निमंद" अतीन्द्रिय, महान, नित्य, अचल, श्रेष्ठ पर पदार्थों के आलम्बन से रहित शुद्ध है ।" मोक्ष पाहुड मे भी कहा है कि आत्मासिद्ध, शुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और केवलज्ञानरूप है ।" निवात्मक शैली द्वारा प्रात्म-स्वरूप निरुपण निषेधात्मक जैसी द्वारा आचार्य ने बताया है कि शुद्ध आत्मा क्या नही है । शुद्ध जीव न प्रमत है, न अप्रमत्त है । उसके न ज्ञान है, न दर्शन है और न चरित्र है. न कर्म है न नो-कर्म है, न-सचिताचित पदार्थ है।" शरीरादि बद्ध और धनधान्य आदि अबद्ध पुद्गल जीव के नही है और न वह अनेक भावों से युक्त है । यदि ये पुद्गल द्रव्य जीव के होते तो पुद्गल भी जीव हो जाता । व्यवहार नय से शरीर और जीव एक है लेकिन निश्चयनय की दृष्टि से शरीर और जीव भिन्न-भिन्न है। जीव समस्त परभावों से भिन्न है।" अध्यवसान, कर्म, अध्यवसान भावों में तीव्र

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