Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 125
________________ साहित्य-समीक्षा १.नतरव कलिका: २. तोपकर (मासिक) : जन मान योग विशेषांक लेखक: आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज अप्रेल १९८३ सम्पादक : श्री समर मुनि सम्पादक-डा. नेमिचन्द जैन । प्रकाशक-हीरा प्रकाशक : आत्मज्ञानपीठ, मानसा मण्डी (पंजाब) या प्रकाशन, ६५ पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग, डिमाई साइज : पृष्ठ २६४+३१६-५८० इन्दौर । पृष्ठ २४; मूल्य-पन्द्रह रुपये। मूल्य : साधारण जिल्द ४० रु. रंग्जीन ७५ रुपए स्थानकवासी श्वेताम्बर उपाध्याय श्री आत्माराम ध्यान-योग पर भारत के ऋषिमुनियों ने गहन चिंतनमहाराज की 'जैन सत्व कलिका विकास' नामक ३०८ मनन किया है एवं प्रभूत प्रयोग करके उसकी परम वैज्ञापेजी कृति सन् १९३८ में करनाल से प्रकाशित हुई थी। निकता को परखा है । जैनाचार्यों का भी इस क्षेत्र में प्रस्तुत कृति उसी का परिवधित और परिवर्तित रूप है। अपना विशेष एवं प्रचुर योगदान है। उन्होंने ध्यान-योग यद्यपि ग्रंथ के मूल नाम से 'विकास' शब्द हटाकर इसका का प्रयोग आत्मा के स्वरूप को जानने में किया है। आज नाम 'जैन तत्व कलिका' कर दिया गया है तथापि विषय जैन ध्यान-योग के प्रति रुचि एव जिज्ञासा बढ़ी है तथा विस्तृत हुआ है। वह वस्तु-स्वरूप, उसकी समग्रता और परिपूर्णता को युगग्रन्थ में जैन-मान्य तत्त्व, द्रव्य, प्रमाण-नय, स्याद्वाद, पत् समझने में सहायता प्रदान करता है। ध्यान की रत्नत्रय, लोकवाद, कर्मवाद आदि जैसे तात्विक विषयों प्रक्रिया सूक्ष्मतर है और उसका सम्बन्ध अभीष्ट एकाग्रता को स्पष्ट और सरल रूप में खोला गया है। इससे पाठक से है। इसलिए हमारा ध्येय सदैव असंदिग्ध होना चाहिये ज्ञानानुभूति और आत्मानुभूति कर सकेंगे । तस्करण को वस्तुतः जैन परम्परित प्रयोगधर्माओं ने जैन योग एवं नवीन रूप देने में सम्पादक श्री अमर मुनि जी ने अथक जैन ध्यान की सूक्ष्मतम मौलिकताओं को उदासित एवं श्रम किया है और विषय को सरलता से विशदरूप में उद्घाटित किया है। स्पष्ट किया है, इसके लिए वे साधुवादाह हैं। साज- विशेषज्ञों की अपनी समृद्ध परम्परा के अनुरूप विशेसज्जा की दृष्टि से प्रकाशक भी बधाई के पात्र हैं। पाक का भी अपना विशिष्ट महत्व है। 'तीर्थकर' ने प्रथम-सस्करण से उद्धृत 'स्वकथ्य' में मूलग्रंथकर्ता हमेशा व्यक्तियों की अपेक्षा प्रवृत्तियों को अधिक महत्त्व द्वारा घोषित उस प्रशस्त भावना का हम आदर करते है, दिया है और भारतीय संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में जैन जिसका सूत्रपात और निर्वाह उन्होंने ५० वर्ष पूर्व किया। संस्कृति की मौलिकताओं को प्रकाशित किया है। प्रस्तुत उनका संकल्प था-'अन्य इस प्रकार से लिखा जाय जो विशेषांक जैन ध्यान-जैन योग की शास्त्रीय एवं लौकिक परस्पर साम्प्रदायिक विरोध से सर्वषा विमुक्त हो और दोनों ही दृष्टियों से सांगोपांग विविध एवं रोचक शैली में उसमें केवल जैन-तत्त्वों का ही जनता को दिग्दर्शन कराया I संयोजित अभिव्यक्ति है । इसमे जैन धर्म और दर्शन के जाय।' प्रस्तुत परिवधित संस्करण में उक्त रेखा का उल्लंघन ममभूत ध्यान और योग के बहुविध पक्षों पर सर्वाळपर्ण दृष्टि से प्रकाश डाला गया गया है जिसके कारण इसे जैसा दिखा, अब इसमे जैन सम्प्रदाय की धाराओ के हादसा मरने विषय के विश्व कोष की कोटि में रखा जा सकता विरोध सम्बन्धी प्रसंग भी जुड़ गए हैं जैसे-मल्लि है। विषय को प्रस्तुत करने में सर्वत्र अधिकारी विद्वानों और महावीर के कथानक, स्त्रीलिंग, नाक 11 और एवं सुविज्ञ मनीषियों द्वारा आधुनिक साधनों एवं शैलियों गृहीलिंग से मुक्ति आदि । इससे अन्य मूल लेखक को भाव का आश्रय लिया गया है जिसके कारण विषय और भी नानुमार संप्रदायातीन न होकर श्वेताम्बर पय की मान्यता रोचक बन पड़ा है। जैसा बन गया है। पूरी जैन-धारा का नहीं। ऐसा तो हम मानते नहीं कि उपाध्याय श्री ऐसे मतभेदों से मारिचित विशेषांक विशेषतया संग्रहणीय एवं सर्वथा उपादेय इसलिए उन्होंने ऐसे प्रसंगों को छोड़ा हो । प्रत्युत ऐसे है तथा प्राच्य विधाओं के प्रत्यास्थापन से हितबद्ध मनीकपनों को स्पर्श न करने में उनकी पन्यवाद निर्मूलक षियों द्वारा मननीय एवं पठनीय है। प्रशस्त भावना ही थी जिसका पात हुमा है। -संपादक -गोकुल प्रसाद जैन, उपाध्यक

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