Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 124
________________ जरा-सोचिए जनी कैसे बना जाय? हम देश-विदेश में, जन-साधारण में धर्म प्रचार करने धर्म और अधर्म दोनों में तथ्य-अतथ्य, सत्य-असत्य कराने का नारा देते हैं, यूनिवर्सिटी और कालेजों में जैन और हां-नां जैसा अन्तर है । धर्म वस्तु का स्वभाव और चेयरों को चाहते हैं, गीता जैसा कोई जैन ग्रन्थ लिखाकर साधारण में वितरण करने-कराने का स्वप्न देखते हैं । पर अधर्म वस्तु का बनावटी रूप है । जब धर्म स्व-द्रव्य में पूर्ण हमारे अपने घरो में अधर्म की जो आग फैल रही है उसे और सम-रूप में व्यापक है तब अधर्म में न्यूनाधिक्य और बुझाने के आय नहीं करते । यह तो ऐसी ही विडम्बना अव्यापकत्व है । वस्तु मात्र के सत्यरूप को विचारें तो छहों है जैसे कोई पुरुष मद्य-पान को बुरा माने और मद्य-पायी द्रव्यों में अपने गुण-धर्म पूर्ण निश्चित हैं, उनमें कभी फेर की निन्दा भी करे। पर, अपने मद्य-पायी पुत्र या सम्बन्धी बदल नहीं होता। को प्रश्रय दे उसका पालन-पोषण करता रहे उससे नाता हमने कभी इसी स्तम्भ में जिन, जैन और जैनी की न तोड़ सके । और जो धर्म की अपेक्षा अपने पुत्रादि को विवेचना की थी कि जैनी वाह्य-आचार और अन्तरंग- अधिक महत्त्व दे, या जो सिगरेट और शराब पर जहर विचार में समानरूप में एक होता है। मात्र जैन य जैनी के लेबल लगवाने का पक्षधर होकर भी उन्हें बेचता और नाम लिखने-लिखाने से जैनी नही हुआ जाता । आज हमें उनके ठेके देता-लेता रहे। इस परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए कि हममें कितने जेनी हैं आचारवान पण्डित गण को देखकर हमें खुशी होती और कितनों ने कारणों वश जैनी का बाना ओड़ रखा है कि हमारे और समाज के भाग्य से वे इस पद के योग्य है ? कितनों ने समाज में धुले-मिले रहने के लिए और हैं-बड़ा ही अच्छा है। पर, इतने लम्बे अर्से के बाद भी कितनों ने राजनैतिक दृष्टि से गणना बढ़ाने के लिए, अपने मुझे अपने को पडित कहलाने या लिखने-लिखाने की जुर्रत को जैन घोषित कर रखा है ? आदि : नही होती। यदि कोई मुझे पडित संबोधन देता है तो गत दिनों दिल्ली बुचडखाने के विरोध में कई पत्र अपने पर शर्म जैसी महसूस होती है । आखिर, पण्डित तो वही होता है जो ज्ञान के अनुरूप आचरण भी करे । मिले, अखबारों में लेख और स्वतन्त्र पैम्फलेट भी देखे। मैं तो अभी मार्ग में ही लगने के प्रयल में हैं। जैन और बड़ा सन्तोष हुआ कि अभी जैनो में चेतना है, वे महावीर जैनी के विषय में भी मेरी यही धारणा है कि उसेके उपासक हैं। पर बाद में जब स्वकीयों के सम्बन्ध में आचरणवान् होना लाजिमी है—बिना आचार-विचार देखा तो जनत्व के प्रति खेद ही हुआ कि-एक ओर तो . के जैन कैसा? हम मूक-पशुओं तक के प्रति दयालु हो-दूसरों से उनकी यदि अपने को जैनी कहने-कहाने वाले उक्त परिप्रेक्ष्य रक्षा की अपेक्षा करें और दूसरी ओर अपनों में हो रहे में जैनी बन जाय तो अगैनों को भी जैनी बनते देर न अनयों को रोकने मे उपेक्षा बरतें? लगे-जैन के प्रचार की चिन्ता भी न करनी पड़े-स्वयं हमने 'जैन शुद्ध वनस्पति का निदेशक जेल में होडग ही प्रचार हो जाय। आखिर, तीर्थकर भी किसी से जैन देखा. दहेज के माध्यम से जली या मरी बहुओ की चचाए बनने को नहीं कहते । लोग उनके दर्शन कर (उनके आचसुनी, और जैनों से अफीम बरामद होने जैसे समाचार भी रण रूप आदर्श से) स्वयं ही जैन हो जाते हैं । उक्त प्रसंग देखे। ये तो कुछ प्रमंग हैं। न जाने अब हम जैन नाम में हम कैसे सच्चे जैनी बन सकते हैं और कैसे आदर्श धारियों में ऐसी कितनी अनहोनी-होनी के रूप में परिणत आचरण की ओर बढ़ सकते हैं ? जरा सोचिए ! होंगी ? हमें इनका उपचार करना होगा। -सम्पादक

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