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जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता
Dii. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच जैन धर्म सबसे प्राचीन जीवन्त परम्परा है। इसकी तथा स्वरूपाचरण में ही अधिकतर मग्न रहते हैं, वे आचार्य प्राचीनता का सबसे बड़ा प्रमाण इम धर्म का अनादि-अनि कहलाते हैं । गृहस्थपना का त्याग कर, मुनि धर्म अंगीकार धन मंत्र है । अनादिनिधन मगल मन्त्र इस प्रकार है
कर निजस्वभाव साधन के द्वारा जो चार घातिको का णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं ।
क्षय कर देते हैं, वे पूर्ण वीतराग अर्हन्त कहे जाते हैं। णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं । सभी प्रकार के कर्म-कलकों से रहित सिद्ध भगवान होते णमो लोए सव्व साहूणं ॥
है। इस तरह मन्त्र में कहे गए पांच परमेष्ठियों के रूप में अर्थात्-लोक में सब अर्हन्तों को नमस्कार हो, सब जैन साधना का कृमिक वर्णन निहित है। सिद्धों को नमस्कार हो, सब आचार्यों को नमस्कार हो, जैनधर्म के अनुसार लोक अकृतिम है, अनादि-अनिधन सब उपाध्यायों को नमस्कार हो, सब साधुओं को नमस्कार है। इस विश्व में पाई जाने वाली सभी वस्तुएं अनादि हो।
काल से हैं और अनन्त काल तक बनी रहेंगी। इसलिए इस मन्त्र में जैन धर्म, संस्कृति-साधना, इतिहास सब ६८ वर्गों की रचना वाले प्राकृत भाषा का यह मन्त्र भले कुछ समाहित है । यद्यपि भाषा की दृष्टि से पैतीस अक्षरो ही द्रव्यश्रुत के रूप में पांच हजार वर्ष पुराना हो, किन्तु वाला यह मन्त्र प्राकृत भाषा में है, किन्तु इस में समस्त भावत के रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल में इसका श्रुतज्ञान की अक्षर संख्या निहित है, यह जिनवाणी का अस्तित्व रहता है। सार है। तत्त्वज्ञान भी इस मे समाया हुआ है । इस मन्त्र पौराणिक दृष्टि से काल की अखण्ड धारा में कमी का उच्चारण करने से धनात्मक और ऋणात्मक दोनो प्रकार विकास का समय वर्तता है और कभी पतन का समय की विद्यत शक्तियां उत्पन्न होती हैं, जिन से कायिक शक्ति आता है। यह काल-चक्र की भांति परिणमनशील रहता जाग्रत होती है। मन्त्र में पांच परम इष्टों अर्थात पूज्य, है। इसके दो विभाग या कल्प-काल माने गए हैं-उत्ससर्वोत्कृष्ण का स्मरण यानी उनके गुणों का स्मरण किया पिणी । और अबविणी जाता है। पूज्य परमात्मा की श्रेणी के माने गए है । जो कभी नीचे से ऊपर और फिर ऊपर से नीचे नियत क्रम में मिथ्यात्व और रागादिक को जीत लेते हैं, वे सम्यग्दृष्टि
धूमता रहता है, उसी प्रकार एक समय ऐसा आता है जब ज्ञानी पुरुष "एकदेशजिन" कहे गए हैं । अतः परमात्मा के
जगत उन्नतिशील होता है और एक समय ऐसा भी आता है गुणों का चिन्तन, मनन करने से मन विसुद्धता को प्राप्त जब सब तरह से अवनति की ओर झुकता जाता है। जैसे होता है। जिस समय हम निर्विकल्प-दशा में तत्वज्ञान का घड़ी की सुई छह संख्या तक नीचे की ओर, फिर छह तक शद्ध ज्ञान रूप से अनुभव करते हैं. उस समय जिनशासन, ऊपर की ओर चलती है, वैसे ही दोनों काल-विभाग छहयह मंगल मंत्र हमारी आत्मशुद्धि का साधन होता है । इस छह के वर्षों में निरन्तर घूमते रहते हैं। उनमें कम है। प्रकार इस मंगल मन्त्र में जिनशासन समाया हुआ है। इसी काल चक्र का नाम विकासवाद तथा ह्रासवाद है। अपने शद्वात्मस्वरूप स्वभाव को साधने वाले साधु होते हैं, उस्सपिणी के छह विभागों के नाम हैं-सुषमा-सुषमा, द्रव्य श्रुतज्ञान की विशिष्टता के साथ भाव श्रुतज्ञान की सुषमा, सुषमा-दुष्मा, दुषमा-सुषमा और दुष्मा-दुष्मा। इसी विशेषता को लिए उपाध्याय होते हैं और जो सष में नायक प्रकार जब काल-चक्र घूमकर सुख से दुख की ओर बाता