Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 159
________________ विचारणाय-प्रसंग भाग ४ पृ० २८४ प० २१- 1. यशोमती स्त्री का अर्हन्त वेश धारण करना स्वीकार करेंगे? या वे मिलकर एक होना क्या स्त्री और सवस्त्र चर्या आदि को स्वीकार करेंगे? मुक्ति की संपुष्टि नहीं? समाज के नेता और लेखक प्रति जरा सोचे, कि वे २. क्या दिगम्बर महावीर यश और अर्थ अर्जन को प्रमुखता देने के लिए लोगों को गणधर को वर्जना करेंगे? या भरमाना पसन्द करेगे या दिगम्बर आगमो और उनके गणधर पांचों के अहंन्त होने मन्तव्यों की सुरक्षा का मार्ग पसन्द करेंगे? को न जान सके होगे? उक्त ग्रन्थ 'मत्रदृष्टा पूज्य श्री विद्यानन्द स्वामी' को इसी प्रकार के बहुत से अन्य प्रश्नो का निराकरण समर्पित होने से ही हम सा नही समझते कि ऐसे विरुद्ध करना पडेगा । हमारा भाव था कि स्थलों को स्वामी जी की स्वीकृति होगी। वे दिगम्बरों के विज्ञ पुरुष भली भांति जानते है कि अकलक प्रभृति श्रद्धास्पद गुरु है, दिगम्बर सिद्धान्त, चर्या आदि पर वे दि० पूर्वाचार्यों ने आगमो को कैसी-कैसी विपरीत परि कभी आंच न आने देंगे। वे तो दिगम्बर धर्म सस्था के स्थितियो मे सरक्षित और प्रचारित किया है इस युग मे सरक्षणार्थ अनशनादि तक के पक्ष-धर हैं। हमारी धारणा भी हमारे विद्वानों को "सजद" जैसे शब्द के सबध मे है कि यदि मुनि श्री विद्यानन्द जी को विरुद्ध-स्थलों को पुनरीक्षण करना पड़ा था और आज भी "सत" आदि पहाया वा दिखाया होता तो ये विसगत प्रसग न होते । शब्दों के प्रासगिक अर्थ विचारणीय बने हुए है। आज कही आगम के मूल शब्दरूप बदले जा रहे हैं और कही शब्दार्थ। लेखक को हम क्या कहे ? वे तो सिद्ध-हस्त प्रसिद्ध यदि शोध के नाम पर आगम के मूल शय रूपो, अर्थों या लेखक है। उन्होंने भाषा-मौम्य और लम्बी कथा के लक्ष्य भावों में परिवर्तन लाने का प्रयास इसी भाति होता रहा मे सैद्धान्तिक विसगनियों के उभार को किनारे रख दिया। या आगमो के मन्तव्यों के विपरीत अन्य नवीन ग्रन्थो का फिर वे यह कह भी चुके है कि "दि. और श्वे. आगम प्रकाशन और प्रचार होता रहा तो दिगम्बरी के आगमो तथा इतिहास मे उपलब्ध नधो का चुनाव मैंने नितान्त के मूल मंतव्य और महापुरुषों के गिम्बर मान्य जीवन अपनी मृजनात्मक आवश्यकता के अनुसार किया है।" और तथ्य लोगो की दृष्टि से ओझा हो जाएँगे तथा लोग उक्त अनुबन्ध प्रकाशकों को स्वीकार हुआ प्रतीत होता है दिगम्बर आचार-विचार से भी ही हो जाएंगे। जो भावी पीढ़ी को विचलित करने में कारण बनेगा। 'अनुत्तर योगी तीर्थकर महावीर' सप्रदाय-निरपेक्ष के क्या अनुत्तर-पोगो धर्म-ग्रंथ नहीं? नाम पर तैयार ऐसी हो रचना है, जिसमे जाने-अनजाने कहा जा रहा है 'अनुत्तर-योगी' धर्मग्रंथ नही हैमात्र सौष्ठव के मिस, दिगम्बर सिद्धान्तो के विपरीत ऐसा यह काव्यमय उपन्यास है और उपन्यास मे कल्पना की बहत कुछ बन पड़ा है जो भविष्य मे दिगम्बरो के विरुद्ध छूट है, आदि। पर, इससे क्या हम ऐसा मान लें कि प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जा सकेगा। यत:-इस ग्रन्थ चारों पुरुषार्यो मे यह रचना अर्थ पुरुषार्थ' मात्र का फल के निर्माण मे सभी दि० स्तम्भो का प्रमुख हाथ है। है। यतः इसे धर्म-पुरुषार्थ तो माना नही जा रहा और संप्रदायातीत दष्टि का अर्थ किसी के सिद्धान्तो की काम और मोक्ष पुरुषार्थ से इसे सर्वया वजित रखा गया काट नही, अपितु बहिरग अन्तरग दोनो मार्गों मे समन्वय है यतः इनकी पुष्टि भी ग्रन्थ से नही होती। है। लोग बहिरंग साम्प्रदायिक चिह्नो से तो चिपके रहे हम यह मानते हैं कि कवि और लेखक को अपन और अन्तरग सिदान्तो की काट करे ये कैसी सप्रदायातीत रचना मे कल्पना की स्वतन्त्रता है पर, किसी प्रसग में दृष्टि है? क्या संप्रदायातीत दृष्टि पेश करने के लिए भी कल्पना वस्तु स्थिति की पुष्टि से विरुड नहीं होनी दिगम्बर मुनि वस्त्र पहिनना और बस्त्र वाले दिगम्बर चाहिए। अपितु वस्तु-स्थिति को स्पष्ट करने में सहावी

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