Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 157
________________ विचारणीय-प्रसंग 'अनुत्तरयोगी-तीर्थकर महावीर' (उपन्यास) Dपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली रचना की पृष्ठभूमि : (लेखक की जबानी): लेखक के उक्त बिखरे उद्गारों से स्पष्ट है कि पद्मभूषण पं० सुमतिबाई जी ने कहा-आप मुनि दिगम्बर क्षेत्र (श्री महावीर जी) में दिगम्बर मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज से मिलिए। वे एक मात्र ऐसे की भावनानुरूप (जन्मन) दिगम्बर लेखक द्वारा 'अनुत्तर व्यक्ति हैं जो संप्रदाय निरपेक्ष रूप में लिखवाना चाहेगे। योगी'-तीर्थकर महावीर (उपन्यास) का निर्माण हुमा महाराज श्री महावीर जी में विराज रहे हैं, मैं परिचय और इन्दौर की (दि. जैन) ग्रन्थ प्रकाशन समिति से पत्र लिखे देती हूं। हम श्री महावीर जी पहुंचे। महाराज प्रकाशित हुआ-सभी प्रसग दिगम्बरी हैं। अभी तक श्री को पत्र दिया उन्होने वह पत्र पढ़ लिया ओर एकान्त प्रकाशित हुए चार भागो की कुल पृष्ठ सख्या १५४७ और में मिलने के लिए कहा। जब मैं उनसे मिलने गया तो मूल्य ११०.०० रुपए है। पाचवां भाग लेखनाधीन है। उन्होंने मेरा कन्धा पकड़कर कहा-आपके लिए परिचय इतने बृहद उपन्यास मे प्रभूत द्रव्य का व्यय (दिगम्बरपत्र की क्या जरूरत है मैं तो आपको खोज ही रहा हूं। धर्मावलम्बियो द्वारा) हो जाना साधारण सी बात है। आपकी कलम मुझे चाहिए उपन्यास लिखने के लिए । मेने ग्रंथ के कुछ प्रसंग (जो वि०परम्परा के सर्वया कहा उपन्यास नहीं लिबूंगा, महाकाव्य लिखूगा। महा- विपरीत हैं): काव्य के रूप मे वह गाथा ज्यादा सफल होगी, ज्यादा जब हमने अनेकान्त मे समालोचना करने की दृष्टि आकर्षित करेगी। महाराज श्री ने कहा लिखिए तो आप से उक्त ग्रंथ को पढ़ा तो बड़ा धक्का लगा। हमने प्रथ मे उपन्यास ही, मैं काव्य भी लिखवा लूगा । “अनुत्तर योगी" महावीर के मुख से कहलाए गये निम्न स्थल देखेका जन्म श्री महावीर जी मे हुआ यों कहिए कि "अनुत्तर १. "एक सुन्दर चांदी की चोकी वहा अतिथि के पडयोगी का गर्भधारण हुआ, गर्भाधान हुआ वही यह निर्णय गाहन को प्रस्तुत थी। मैंने उस पर पग धारण लिया गया। फिर इन्दौर से बाबूलाल जी पाटौदी आए किया।" (भाग २ पृ. ६) उनके साथ फिर श्री वीर निर्वाण अन्य प्रकाशन समिति २. "सर्वार्थसिद्धि जैसी आत्मोन्नति की ऊर्वश्रेणियों पर के अन्तर्गत अनुबन्धित करने का प्रस्ताव हुआ।" डा. आरूढ़ होकर भी कभी-कभी आत्माएं नारकी और नेमीचन्द जी ने प्रूफ रीडिंग में काफी मदद की। केवल नियंच योनियो तक मे आ पड़ती है।" प्रूफ रीडिं। मे ही मदद नहीं की है। बल्कि "अनुत्तर (भाग २ पृ० ५१) योगी" का जो स्वरूप है, उसके कलेवर मे, मुद्रण मैं जो ३. "उस हवेली के द्वार पर कोई द्वारापेक्षण करता नही सारा परिष्कार किया, उसका जौ (फार्मेट) मे चाहता था, खडा है । आतिथ्य भाव से शून्य है वह भवन । ठीक पत्राचार के द्वारा मिलना बहुत कम होता था, आपने उमी के सन्मुख खड़े होकर श्रमण ने पाणिपात्र पमार (म. सा. ने) मुझे पूरा-पूरा ग्रहण कर लिया, भीतर से, दिया। गवाक्ष पर बैठे नवीन श्रेष्ठि ने लक्षमी के प्रथम खण्ड से ही........."मेरी कल्पना को साकार मद से उद्दण्ड ग्रीवा उठाकर अपनी दासी को आदेश दिया :-तीर्थकर वर्ष १२ अक के अंश : साभार । किंचना, इस भिक्षुक को भिक्षा देकर तुरन्त विदा कर

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