Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 156
________________ २, १६ कि.४ ने ही सारे जैनियों का मस्तक नीचा कर दिया और जैन- है जैसे भगवान महावीर के कानों में (जो कि बजवृषभ धर्म की छवि धूमिल कर दी। नाराच संहनन के धारी थे) शलाका ठोकना, स्त्री की ऐसे ही तथा कथित प्रष्ट जैनियों के जाल में हमारा मुक्ति सवस्त्र मुक्ति आदि दि० सैद्धान्तिक विरोध की बातें कुछ त्यागी वर्ग भी फंसा हुआ है। दिगम्बरों में त्यागी जन अंकित की गई है वे निश्चय ही समादरणीय नहीं है। और भी शिथिल होते जा रहे हैं। लगता है कि कालान्तर में जब पंथ मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज (जो दि. साधु है) को समर्पित हो। त्यागी व साधु मार्ग ही समाप्त न हो जावे। वैसे आज " तीर्थकर' मासिक पत्रिका के विद्वान सम्पादक डा. दि० मुनियों की गिनती अंगुलियों पर गिनने लायक रह नेमीचन्द जी जैन द्वारा श्री वीरेन्द्रकुमार जी से लिए गई है मुश्किल से सौ सवा सौ ही हों तो कोई अत्युक्ति न साक्षात्कार में जिन बातों का उल्लेख है निश्चय ही वे होगी उनमें भी कषाय, एवं शिथलाचार व्याप्त हैं। जिससे दिगम्बरत्व की सीमा के प्रतिकूल है। यह साक्षात्कार मोगों का उनके प्रति आदरभाव भी कम होता जा रहा है 'तीर्थकर' के वर्ष १२ के अंक मे प्रकाशित है। ऐसा लगता यहां तक दूसरे लोग भी दिगम्बर साधु के दिगम्बरत्व का है कि श्री वीरेन्द्र जी को भ० महावीर के जीवन सबन्धी उपहास करते हैं। यदि यही स्थिति चालू रही तो कालान्तर छोटे-छोटे प्रकरणों को उजागर करने की लालसा सता रही में कोई भी दि० साधु न रहेंगे और जो कुछ क्षुल्लक या होगी जिनके कि उल्लेख श्वे. साहित्य की चूर्णि, निशी. ऐलक बनेंगे वे सवस्त्र होगे तो निश्चय ही श्वे० विद्वानों थिका, आगम आदि प्रथो मे ही उपलब्ध होते हैं । दि० मे और कहने में तनिक भी संकोच न रहेगा कि दिगम्बरत्व नही। मैं समझता है कि उनकी इच्छा महात्मा बुद्ध के स्वयं में कुछ नहीं अपितु श्वेताम्बरत्व की ही शाखा है जीवन की बारीकियो के भांति, जिनका कि उल्लेख जातक यह परिकल्पना मैं अब से भविष्य मे दो चार शताब्दी कथाओ, त्रिपिटकों सुत्त आदि प्रथो मे उपलब्ध होता हैं, बाद की कर रहा हूं। जब कि कोई दिगम्बर दिखेगा ही, उसी तरह भ. महावीर के जीवन की बारीकियो को नहीं। जरा दूर दृष्टि से संवत ३००० की कल्पना कीजिए। प्रकाश में लाने की होगी, पर ऐसे विवादास्पद उपन्यास उस समय अब कोई दिगम्बर होगा ही नही तो फिर को लिखने से पूर्व उन्हें दोनो सम्प्रदायों के साहित्य और दिगम्बरत्व के अस्तित्व में क्या तक और प्रमाण प्रस्तुत सिद्धान्त का गहन अध्ययन जरूरी था जिससे किसी की किए जा सकेंगे, केवल प्राचीन साहित्य और इतिहास ही अगुली उठाने की जुर्रत न पड़ती। अभी विगत वर्ष प्रसिद्ध दिगम्बरत्व का प्रतीक रह जावेगा । अत: इस दिशा में कथा शिल्पी, हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार, शरद बाबू के विद्वानों एवं समाज सेवियों को कुछ सोचना एवं उपाय चितेरे श्री विष्णु प्रभाकर जी ने बाहुबली के ऊपर एक खोजना चाहिए। जैन साधु भी इस दिशा में आत्मालोचन नाटक लिखा था जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित करे और भविष्य में दिगम्बरत्व लुप्त न हो जावे इस सबंध किया है उस नाटक को श्री विष्णु जी ने इतनी कुशलता में कुछ गवेषणात्मक विवेचना करें। और चतुराई एव दोनो सम्प्रदायो की विचारधाराओ का अभी प्रसिद्ध कथा शिल्पी श्री वीरेन्द्र कुमार जैन जो गहन अध्ययन कर लिखा कि दि० या श्वे० किसी को स्वयं दिगम्बरी है का 'अनुत्तर योगी' एक वृहत उपन्यास भी कही भी कुछ अंगुली उठाने या आलोचना करने की प्रकाशित हुआ है अभी हाल में सम्भवतः पाचवा भाग जगह नही छोड़ी, दोनों ही वर्ग उससे पूर्णतया सतुष्ट हैं। प्रकाशित होना है, इसे इन्दौर की दिगम्बर समाज द्वारा यद्यपि विष्णु जी जैनी नहीं हैं फिर भी उन्होने किसी भी अपित "महावीर निर्वाण शताब्दी समिति" द्वारा लाखों वर्ग के किसी विवादग्रस्त मसले को छुआ ही नहीं जबकि रुपये खर्च करके प्रयाशित किया जा रहा है । यद्यपि यह श्री वीरेन्द्र जी जैनी हैं और दिगम्बरी है फिर भी विवादकल्प अब है कोई सैदान्तिक दिवेचना एवं गवेषणा से ग्रस्त मसलों की वे उपेक्षा न कर सके और एकांगी पक्ष dोर्ट मपर्ण शास्त्र नहीं है पर इसमें दिगम्बर को प्रबल बना गये, ऐसा लगता है कि उन्हें अपनी कृति विरोधी कुछ संद्धान्तिक विवेचना की है या उदरण दिए (शेष पृ०२३ पर) रूपये कोई नहीं है पर दिए

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