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१०, वर्ष ३६, कि० ४
अनेकान्त
नहीं उकेरे जाते थे, चिन्ह उकेरने की परम्परा बाद में उपर्युक्त तीनो मूर्ति लेखो की भाषा एक सी ही है प्रचलित हुई है। इन तीनो 'तिमाओं को, जिनका मूल केवल चन्द्र प्रभु भगवान के मूर्ति लेख को छोड़कर शेष दो निम्न प्रकार है, महाराजाधिराज श्री रामगुप्त के उपदेश लेख खन्डित हैं । पर यह सुनिश्चित है कि ये प्रतिमाएं से गोलकान्त के पुत्र चेल ने सर्पसन के शिष्य और उनके महाराजाधिराज रामगुप्त के उपदेश से प्रतिष्ठत कराई गई प्रशिष्य द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी - तीनो मूर्ति लेख थी इससे सम्राट रामगुप्त का जैन धर्म के प्रति अनुराग निम्न प्रकार है :
और सद्भाव स्पष्ट प्रतीत होता है। हो सकता है जैनधर्म
के प्रति अनुराग की यह भावना वंश परम्परा मे ही चली श्री चन्द्रप्रभु की प्रतिमा
आ रही हो। १. भगवतोऽर्हत चन्द्रप्रभस्य प्रतिमयं कारिता गहाराजा
उपर्युक्त तथ्यो से सम्राट रामगुप्त की हीनता एव धिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक चन्द्र
कायरता का सर्वथा निषेध हो जाता है । यह तो कोई क्षमणाचार्य क्षमण श्रमण प्रणिप्याचार्य सर्पसन क्षमण
राजनैतिक या ऐतिहासिक षड्यन्त्र रहा है जिसने रामगुप्त शिष्यस्य गोलक्यान्त्य सत्पुत्रस्य चेरलक्षमणस्यति ।।
की छवि धूमिल कर दी और यह षड्यत्र ११ वी सदी के श्री पुष्पदन्त की प्रतिमा
बाद प्रचलित हुआ जिसे परवर्ती विद्वानो ने आंख मीच
कर स्वीकार लिया। ११ वी सदी से पूर्व ऐसा कोई २. भगवतोऽर्हत. पुष्पदन्तस्य प्रथमय कारिता महाराजा
उल्लेख नही मिलता है और अब विदिशा से प्राप्त मतियो धिराज थी रामगुप्तेन् उपदेशात् पाणिपाधिक चन्द्र
एव सिक्को से इस षड्यत्र का सर्वथा भडाफोड़ ही हो क्षमताचार्य क्षमण श्रमण प्रशिष्य ..... ........
जाता है और रामगुप्त एक श्रेष्ठ गुप्त सम्राट सिद्ध होता अपूर्ण ।
है। निष्पक्ष इतिहासकारों को इस तथ्य की पुष्टि कर श्री पद्मप्रभु को प्रतिमा
प्राचीन षड्यन्त्र का सर्वथा निराकरण करना कराना ३. भगवतोऽर्हत: पद्मप्रभस्य प्रतिमय कारिता महाराजा- चाहिए । इतिहास मे प्राय. भूलें प्रचलित हो जाती है जो धिराज श्री राम गुप्तेन उपदेत पाणि पाविक...... कालान्तर में स्पष्ट प्रमाण मिलने पर सुधार ली जाती है। अपूर्ण ।
अत. इन भूल को भी सुधारना चाहिए। उपर्युक्त प्रमिमाए विदिशा के संग्रहालय में सुरक्षति
विश्वामनगर-शाहदरा दिल्ली-११००३२
'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरयागज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जैन, ८ जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक सम्पादक-श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
मैं रत्नत्रयधारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है।
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