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भाचार्य कुनकुन्द की न बर्शन को देन शुयोपयोग
शुद्धोपयोग ही उपादेय है ___ अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहना शुखोपयोग है। यद्यपि अशुभोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग से रहित निर्विकल्प स्थिति
लेकिन शुभोपयोग भी संसार का कारणभूत होने के कारण शुद्धोपयोगी की है। जिस समय जीव पर-पदार्थों में न राग शुभोपयोग भी छोड़ने योग्य है। शुभोपयोग पुण्य उत्पन्न करता है और न देष करता है अर्थात् उससे सर्वथा उदासीन करता है, पुण्य सोने की बेड़ी के समान है, जो जीव को हो जाता है। और निर्विकल्प होकर शुद्ध आत्मा का
बन्धन में बांधता है।" अतः यह मोक्ष का साक्षात् कारण चिन्तन करने लगता है। यह मोह-शोभ-विहीन आत्मा की नहा है।" अशुभोपयोग की तरह शुभोपयोग से भी स्वाभा साम्य अवस्था ही शुद्धोपयोग है। कहा भी है-"अशुभ
विक सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसके विपरीत शुभोपयोग से रहित और शुभोपयोग में राग न रखने वाला
योगजन्य सुख इन्द्रियजन्य, पराधीन, बाधायुक्त, कर्म-बन्धन (अशुभयोग और शुभोपयोग से रहित) और शुभ एवं अशुभ
का कारण, क्षयिक और विषम होने से दुःख रूप ही होना पदार्थों में मध्यस्थ स्व-पर-विवेकी जीव ज्ञान स्वरूप शुद्ध
है।" शुभोपयोगी विषयों में तृष्णा रखता हुआ उनमें रमण आत्मा का अनुभव करता है।"
करते हैं । विषय-जन्य सुखाभास है सुख नहीं । अनः मनुष्य शुद्धोपयोग को पद्मनन्दि ने साम्य, स्वस्वास्थ्य, समाधि
तिर्यच, नारकी और देव सभी देहजन्य दुःखों से पीड़ित रहते
हैं। अत: शुभोपयोग भी अशुभोपयोग की तरह त्यागने योग, चित्तनिरोध कहा है।" जयसेन ने प्रवचनसार की तात्पर्य-वृत्ति में उत्सर्ग मार्ग, निश्चय नय, सर्वपरित्याग,
योग्य है शुद्धोपयोग से शरीरजन्य दुख नहीं होते हैं और संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग को एकार्थक कहा
स्वाभाविक सुख मिलता है, संवर एवं मोक्ष का साक्षात् है।" अत: शुद्धोपयोगी वह कहलाता है जिसने समस्त
कारण है।" इसलिए यह उपादेय है । यही कारण है कि
आचार्य ने संसारी जीवों को शुद्धोपयोग ग्रहण करने की शास्त्रों का भलीभांतिपूर्वक अध्ययन कर लिया है, संयम
प्रेरणा दी है। और तप से युक्त है, वीतराग है और सुख-दुख में समभाव रखता है।"
शान-विमर्श
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में ज्ञान मीमांसा बहुत ही शुद्धोपयोगका फल
महत्त्वपूर्ण मानी गई है। प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि शुद्धोपयोग युक्त आत्मा को निर्वाण का सुख मिलता।
आध्यात्मिक ग्रन्यों में ज्ञान जीव का स्वरूप, स्वभाव और है। क्योंकि शुखोपयोग पुण्य-पाप का कारण नहीं हैं।
सार बतलाया गया है। जो जानता है वह ज्ञान है । शान निर्वाण सुख की विशेषता है कि वह सातिशय, आत्म- के द्वारा ही समस्त पदार्थों को जान सकते हैं । पदार्थों का जन्य, विषयातीत, अनुपमेय, अनन्त और निरन्तर बाधा- ज्ञान हो जाने पर ही मोक्षमार्ग के लक्षभूत शुद्ध आत्मा की रहित होता हैं।
प्राप्ति हो सकती है।"शान सर्वव्यापक स्व-पर प्रकाशक शुद्धोपयोग अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान से क्षीण रूप कहा गया है। कषाय नामक बारहवें गुण-स्थान तक के जीवों के तारतम्य ज्ञान के मेव रूप से होता है। संयोग केवली और अयोगकेवलीजिन आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्धज्ञान केवलज्ञान को प्राप्त होना शुद्धोपयोग का फल है। शुखोपयोग के प्रभाव से करना जीवन का लक्ष्य बतलाया है। यह सामान्य ज्ञान आत्मा के शानावरणादि घातिया कर्मों का भय हो जाने से कर्म की अपेक्षा माठ प्रकार का बतलाया हैशुद्धोपयोगी के केवलज्ञान हो जाता है । अतः वह केवली माभिनिबोध, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान, कहलाने लगता है। केवली तीन कालवी समस्त द्रव्यों कुमतिज्ञान, कुश्रुत और विभंगज्ञान । और उनकी पर्यायों को जानने लगता है इसलिए वह सर्वज्ञ स्वभावमान और विभावज्ञान कहलाने लगता है।"
अर्धमागधी बागमों में स्वभावज्ञान और विभावज्ञान