Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 149
________________ माचार्य कुन्दकुन्त को न दर्शन को देन २१ ६. अति सूक्म-कर्मवर्गणा रूपन होने योग्य स्कन्ध अति १७. परमाणु सावकाशी नहीं है अर्थात् दो आदि प्रदेश सूक्ष्म हैं। वाला नहीं होने से उसमें जगह नहीं है। परमारण सिमान्त १८. एक प्रदेश से ही स्कन्धों का भेदक है। आचार्य कुन्दकुन्द का परमाणु-सिद्धान्त भी अनुपम १९. स्कन्धों का कर्ता है। हैं। नियमसार", प्रवचनसार" और पंचास्तिकाय में पर २०. परमाणु काल और संख्या का भेद करने वाला है। माणु का स्वरूप निम्नाकित बतलाया गया है- २१. स्कन्ध से भिन्न है। १. जिसका आप ही आदि, आप ही मध्य है और आप २२. स्निग्ध और रूक्ष गुणो के कारण एक परमाणु दूसरे _ही अन्त है, वह परमाणु कहलाता है। परमाणु से मिलकर दो-तीन प्रदेश वाला हो जाता २. जो इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नही किया जाता है। ३. जो अविभागी है।" २३. परमाणु परिणमन स्वभाव होने से उसके स्निग्ध और ४. स्कन्धों का अन्तिम अश (भाग) परमाणु है।" रूक्ष एक अविभावी प्रतिच्छेद से लेकर बढ़ते-बढते ५. परमाणु शाश्वत (नित्य) है। अनन्त अविभागी प्रतिच्छेद वाले तक हो जाते हैं।" ६. अशब्द है, लेकिन शब्द का कारण है।" २४. परमाणु के स्निग्ध गुण हो अथवा रूक्ष गुण हों, समान ७. परमाण एक प्रदेशी अर्थात् प्रदेश मात्र है । संख्यक (दो, चार, छह आदि) अथवा विषम संख्यक ८. परमाणु मूर्तिक है। (तीन, पांच, आदि) गुण वाले परमाणुओं में से दो ६. परमाणु अप्रदेशी है। गुण अधिक होने पर दोनों परमाणुओं का आपस में १०. परमाणु में स्निग्ध और रूक्ष गुण होते हैं।" वध होता है। लेकिन एक स्निग्ध अथवा एक रूक्ष ११. परमाणु में एक रस, एक गध, एक रूप और दो गुण वाले परमाणु का किसी परमाणु के साथ बन्ध स्पर्श होते हैं । ऐसा परमाणु स्वभाव गुण वाला पर- नही होता है।" माणु कहलाता है।" आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में निहित तत्त्व मीमांसा १२. दयणक में अनेक रसादि वाला परमाण विभाग गुण और ज्ञानमीमांसा के कतिपय मूलभूत सिद्धान्तो का सक्षिप्त वाला कहलाता है। विवेचन किया। आचारांग आदि विद्यमान अर्धमागधी १३. परमाणु पृथ्वी आदि चार धातुओं का कारण और आगमो मे उपर्युक्त सिद्धान्त दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। इस कार्य है। दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को एक अनुपम १४. परमाणु परिणामी है । तात्पर्य यह है कि स्पर्शादि गुण देन कही जा सकती है। निबन्ध का कलेवर बढ़ जाने के के भेदों से षट्गुणी हानि-वृद्धि होती रहती है। भय से यहा उनके द्वारा प्रतिपादित आचार मीमांसा का १५. परमाणु नित्य है। विवेचन नही प्रस्तुत कर सका है। आचार्य कुन्दकुन्द के १६. पराण अनवकाशी नही है अर्थात् परमाणु वर्णादि उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने उनके सिद्धान्तो का पोषण और गुणो को अवकाश देता है। संवर्धन किया है। सन्दर्भ-सूची १. मोक्खपाहड़, गा०४ ६.नि. सा०, गा०७ २. (क) पूज्यपादाचार्य . समाधिसतक । ७. णाणी सिव परमेष्ठी सव्वण्हू बउमुहो बुद्धो। (ब) शुभचन्हे : ज्ञानार्णव, अधिकार ३२ अप्पो विय परमप्पो कम्मविमुवको य होइ फुडं। (ग) योगेन्दु : परमात्म प्रकाश, ११११ इत्यादि भावपाहुड, गा० १५० ३. मो० पा०, गा०५, ८-११ ८. नियमसार, गा०१७६-७७ ४. नि. सा०, मा० १४६-१५१ अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी। ५. मा०पा०, मा०५-६ प्र० सा०, २३३

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