Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 147
________________ भाचार्य कुन्यकुलको मैन बर्शन को न बिना अपने को जना देते हैं। इस प्रकार निश्चयनय की जिस प्रकार सूर्य का ताप और प्रकाश एक साथ होता है अपेक्षा ज्ञेय और ज्ञानी दोनों स्वतन्त्र हैं और उनमें ज्ञेयर उसी प्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन एक साथ गायक सम्बन्ध है। होता है। व्यवहार से ज्ञान पदार्थों में है आचार्य सिद्धसेन ने इस सिद्धान्त की तार्किक रूप से व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानी ज्ञ यों में प्रविष्ट होता सम्पुष्टि की है। है। शेयों में ज्ञानी उसी प्रकार रहता है जैसे पदार्थों मे सवज्ञता का सिद्धान्त दृष्टि रहती है। इस बात को उदाहरण देकर समझाया सर्वज्ञता की जो व्याख्या प्रवचनसार में कुन्दकुन्द ने गया है। जिस प्रकार दूध में नीलमणि रत्न डालने से वह की वह इनके पूर्व किसी भी अर्धमागधी आगम में दष्टिअपनी प्रतिमा से अर्थात् नीली आभा से दूध के रूप को गोचर नही होती है। जीव या आत्मा स्वभाव से ज्ञान ढक करके उसे नीला कर देता है उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेय स्वरूप है। ज्ञान उसका स्वाभाविक गुण है इसलिए वह पदार्थों में रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूध में ज्ञाता कहलाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान आत्मा से अभिन्न नीलमणि स्वय व्याप्त नही होता फिर भी वह दूध उसकी है। इमलिए आत्मा को ज्ञाता कहने का तात्पर्य यह नहीं है नील आभा के कारण नीला हो जाता है। उसी प्रकार कि ज्ञान आत्मा से भिन्न है और ज्ञान के संयोग से वह ज्ञाता ज्ञान वास्तव में ज्ञेय मे नही होता है फिर भी अपनी विचित्र हो जाता है ।" आत्मा स्वभाब से ज्ञाता होता है । ज्ञान गुण ज्ञायक शक्ति से पदार्थों को जान लेता है इसलिए कहा आत्मा ही है और यह आत्मा के बिना अन्यत्र नही रहता। जाता है कि ज्ञेय अर्थात् पदार्थों मे ज्ञान है । इसलिए ज्ञान आत्मा है। लेकिन आत्मा शान गुण स्वरूप ज्ञेय ज्ञान में रहता है एवं अन्य सुखादि गुण रूप भी है।"आत्मा ज्ञान प्रमाण ___ जिम प्रकार व्यवहार नय से ज्ञान पदार्थों में रहता है है। उससे कम या अधिक नहीं है। यदि आत्मा को जान उसी प्रकार यह भी मानना चाहिए कि ज्ञान मे पदार्थ के बरावर न माना जाय तो आत्मा को उससे कम या रहते हैं। यदि पदार्थ ज्ञान मे नही रहता है, ऐमा माना अधिक मानना पड़ेगा । यदि ज्ञान आत्मा से कम है। ऐसा जाय तो ज्ञान सर्वव्यापक कैसे कहा जायेगा? कि ज्ञान माना जाय तो ज्ञान अचेतन हो जाएगा और वह कभी सर्वव्यापक है, ज्ञेय लोक-अलोक है, इमलिए अर्थ ज्ञान में नही जान सकेगा। यदि ऐसी मान्यता हो कि आत्मा ज्ञान रहते हैं, यह सिद्ध है। से बडा है तो आत्मा ज्ञान के बिना कुछ नही जान दर्शन सकेगा।" इसलिए मिद्ध है कि ज्ञान आत्मा का अभिन्न दर्शन का सामान्य अर्थ देखना होता है। पनास्ति- स्वाभाविक गुण है। इसलिए आमा स्वभाव से ज्ञाता है। काय में जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया वह दीपक की तरह स्वय और पर-पदार्यों को जानता है। __लेकिन अनादि काल से या जीव पुद्गल कर्मों से मलीन स्वभाव और विभाव दर्शन है।" इसलिए उनकी स्वाभाविक ज्ञान शक्ति रुक जाती है, नियमसार में दर्शन का वर्गीकरण दो प्रकार से किया अत. उसकी सामाविक शक का TET रुक जाता है। गया है" सांसारिक जीव स्वय प्रतिगुणस्थान प्रयत्न करता हुआ १- स्वभाव दर्शन-केवलदर्शन बारहवे गुण स्थान में घाति का-जानावर ण, दर्शनावरण २-विभाव दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षु एवं अवधि- अन्तराय और मोहनीय रूपी रम को सर्वथा समूल नष्ट दर्शन। कर देता है तो वह समस्त पदार्थों को जानने लगता है।" शान दर्शन का योगपद्य तब वह अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त करके स्वयं ही आचार्य कुन्दकुन्द ने केवली के ज्ञान और दर्शन को सर्वज्ञ, सम्पूर्ण लोक के अधिपतियों का पूज्य स्वयम्भू योगपद्य होना बतलाया है। नियमसार मे वे कहते है कि हो जाता है।" घानियों के नाण हो जाने से उसके

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