Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 139
________________ क्षणभंगवाद और अनेकान्त अशोककुमार जैन एम० ए०, शास्त्री क्षणभंगवाद बौद्धदर्शन का सबसे बड़ा सिद्धान्त है। वस्तु न तो युगपद् अर्थ क्रिया करती है ओर न क्रम से । संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं वे प्रतिक्षण बदलते रहते नित्य वस्तु यदि युगपद् अर्थ क्रिया करती है तो संसार के हैं, विश्व में कुछ भी स्थिर नही है, चारो ओर परिवर्तन समस्त पदार्थों को एक साथ, एक समय में ही उत्सन्न ही परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, हमें अपने शरीर पर ही हो जाना चाहिए और ऐमा होने पर आगे के समय में विश्वास नहीं है, जीवन का कोई ठिकाना नहीं है, इन्यादि निन्य वस्तु को कुछ भी काम करने को शेष नही बचेगा। भावनाओ के कारण क्षणभगवाद का आविर्भाव हुआ है। अत. वह अर्थ क्रिया के अभाव मे अवस्तु हो जायगी। इस वैसे तो प्रत्येक दर्शन (भग) नाश को मानता है, किन्तु प्रकार नित्य मे युगपद् अर्थ क्रिया नहीं बनती है। नित्य बौद्ध दर्शन की यह विशेषता है कि कोई भी वस्तु एक क्षण वस्तु क्रम से भी अर्थ क्रिया नहीं कर सकती तो यह प्रश्न ही ठहरती है और दूसरे क्षण मे वह वही नही रहती, किन्तु उपस्थित होता है कि महकारी कारण उसमे कुछ विशेषता दूसरी हो जाती है अर्थात् वस्तु का प्रत्येक क्षण मे स्वा. उत्पन्न करते है या नही ? यदि सहकारी कारण नित्य में भाविक नाश होता रहता है । तर्क के आधार पर क्षणि- कुछ विशेषता उत्पन्न करते है तो वह नित्य नहीं रह कत्व की सिद्धि इस प्रकार की गई है-'सर्व क्षणिक सत्वात' सकती और यदि सहकारी कारण नित्य में कुछ भी अर्थात सब पदार्थ क्षणिक है, सत् होने से । सत् वह है जो विशेषता उत्पन्न नहीं करते तो सहकारी कारणो के मिलने अर्य क्रिया (कुछ काम) करे।' बौद्ध कह रहे हैं कि इस ढंग पर भी वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकेगी। दूसरी की कई व्याप्तियां बनी हुई है कि जो जो सत् है वे सभी बात यह भी है कि नित्य स्वयं समर्थ है अत: उसे सहकारी क्षणिक हैं अर्थात् नित्य नही है अथवा जो जो सत् है कारणो की कोई अपेक्षा भी नही होगी फिर क्यों न बढ़ वह सभी प्रकारों करके एक दूसरे से विलक्षण हैं अर्थात् एक गमय मे ही सब काम कर देगी। इस प्रकार नित्य कोई भी किसी के सदृश नहीं है । उससे अतिरिक्त अन्य पदार्थ मे न नो युगपद् अर्थ किया हो सकती है और न स्थानों में सतपने का व्याघात हो जाने से अर्थ क्रिया की क्रम से । अर्थ क्रिया के अभाव मे वह सत् भी नही कहला क्षति है । सम्पूर्ण सत् पदार्थ क्षण मे समूल चूल नाश हो सकता इसलिए जो गन् है वह नियम से क्षणिक हैं। जाना स्वभाव वाले है यानी एक क्षण मे ही उत्पन होकर क्षणिक ही अर्थ क्रिया करता है। यही क्षणभगवाद है। आत्मलाभ करते हुए द्वितीय क्षण में बिना कारण ही वन क्षणभग के कारण ही बोजन विनाश को नितक मानता को प्राप्त हो जाते हैं तथा प्रतिक्षण नवीन-नवीन उत्पन्न हो है। प्रत्येक क्षण मे चिनाश दय होता है किसी दूसरे के रहे पदार्थ सर्व ही प्रकारों से परस्पर मे विलक्षण है। कोई द्वारा नही।' घट का जो विनाश दण्ड के द्वारा होता मा किसी के सदृश नही । सूर्य चन्द्रमा, आत्मा, मर्वज्ञप्रत्यक्ष, देखा जाता है वह घट का विनाश नही, किन्तु कपाल की परमात्मा आदि पदार्थों के भी उत्तर-उत्तर होने वाले उत्पत्ति है। असंख्य परिणाम सदश नहीं हैं, विभिन्न है, इस प्रकार, उत्तरपक्ष- बौदों वे नमार सर्वपदार्थ क्षणिक बोट मानते हैं। अब यह देखना है कि अर्थ कि निम को पी पदार्थ दोक्षण नही हन्ता, एक क्षण ही पदार्थ पदार्थ में हो सकती है या नही । रौद्ध दर्शन का कहना कि का अस्तित्व माना है। इस प्रकार का अनित्यत्वकान्त नित्य वस्त में अर्थ क्रिया हो ही नही सकती की कि निय प्रत्यक्ष से मिशनही होता है। प्ररक्ष से तो स्थिर अर्थ

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