Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 136
________________ ३६०४ अने के सिंहल, वर्मा, स्याम, कम्बोज, चम्पा, श्री विजय, नवद्वीप आदि प्रदेशों से इस देश का जो सांस्कृतिक सम्बन्ध बना रहा है, उसके मूल मे जैन व्यापारियों एवं विद्वानों का योग अवश्य रहा है। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा जब लका में धर्म प्रचार के लिए गए, तो उन्होंने वहां देखा कि निर्ग्रन्थ सघ पहले से ही उस देश मे स्थापित है । पालि ग्रन्थों के अनुसार लंका में बौद्ध धर्म की स्थापना हो जाने के पश्चात ४४ ई० पूर्व तक वहां निर्ग्रन्थों के आश्रम विद्यमान थे। "महावंश" के अनुसार तत्कालीन राजा ने निर्ग्रन्थों के लिए भी आश्रम बनवाए । डा० जैन • के अनुसार मध्य एशिया की फरात नदी की घाटी के ऊपरी भाग में एक भारतीय उपनिवेश ईसा पूर्व दूमरी शताब्दी में विद्यमान था । लगभग पाच सौ वर्ष पश्चात् पोप ग्रेगरी ने भयकर आक्रमण करके उसे ध्वस्त कर दिया था । अनुश्रुति है कि खेतान के उक्त भारतीय उपनिवेश की स्थापना का श्रेय मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र राजकुमार कुणाल को है। वह राजकुमार जैन धर्मावलम्बी था और उसका ही पुत्र प्रसिद्ध जैन सम्राट सम्प्रति था । मध्य एशिया में सम्भवत यह सर्वप्रथम भारतीय उपनिवेश था । फिर तो चौथी शती ई. के प्रारम्भ तक काशगर से लेकर चीन की सीमा पर्यन्त समस्त पूर्वी तुकिस्तान का प्रायः ( पृ० ४ का शेषाश) भाग में अनेक लमूह सामिबहारी पाये जाते है, इतर धर्मों वाले नग्न जैन मुनियो के प्रति विरक्ति भी प्रदर्शित करते है, तथावि प्रायः सर्वत्र ही जैनधर्म, उसके अनुयायी एव धर्मातन आदि अल्पाधिक पाये जाते रहे हैं। दिगम्बर मुनियों का प्राय निर्बाध बिहार भी सर्व होता रहा है। शुद्ध सात्विक अहिंसक जैन विचारधारा और जैनचर्या, विशेषकर जैन साधुओ की चर्या के नियमों की कठोरता अवश्य ही जिनधर्म के व्यापक प्रचार में बाधक रही है, किन्तु सर्वोपरि कारण इतर परम्पराओं के अनुयायियों का धार्मिक विद्वेष तथा उनके सत्ताधारी प्रभवदाताओं द्वारा किए गए भीषण धार्मिक अत्याचार ही हैं । लका का वट्टगामिनी, पांड्यमदुरा का सम्बदर, पल्लवकांची का अय्यर और मद्रन्द्र वर्मन रामानुज के श्रीवैष्णव, बासव के लिंगायत या वीरव किस किसने जैनधर्म का उच्छेद करने के मानुषिक प्रयास नहीं किए। अन्य विरोधी शक्तियां एवं विविध कारण भी कार्य करते रहे। यों, लगभग ५० वर्ष पूर्व स्व. ब्र. सीतल प्रसाद जो शंका गये थे, वहां उन्होंने कुछ काल निवास भी किया था, पूर्णतया भारतीयकरण हो चुका था। उसके दक्षिणी भाग में शैलदेश ( काशगर), चौक्कुक (यारकुन्द), खोतग (खोतन), और चन्द (शान-शान ) नाम के तथा उत्तरी भाग में भस्म, कुचि, अग्नि देश और काओ चंग नाम के भारतीय संस्कृति के महान प्रसार केंद्र थे। इन उपनिवेशों की स्थापना के पश्चात चौथी से सातवीं शताब्दी तक लगातार निर्द्वन्यो तथा बौद्ध भिक्षुओं का आवागमन होता रहा है। कुछ जैन मूर्तियां एवं अन्य जैन अवशेष भी वहां यत्र-तत्र प्राप्त हुए है । अनेक प्राच्यविदों एवं पुरातत्त्वज्ञों का मत है कि प्राचीन काल में जैनधर्म भी उन प्रदेशों में अवश्य पहुंचा था। तिब्बत, कपिशा (अफगानिस्तान), गान्धार (तक्षशिला और कन्दहार), ईरान, ईराक, अरब, । तुर्री, मध्य एशिया आदि मे जैनधर्म के किसी-किसी रूप में पहुचने के चिन्ह प्राप्त होते है । इतना नहीं, चीन देश के "ताओ" आदि प्राचीन धर्मरूपो पर जैनधर्म का प्रभाव लक्षित होता है। चीन के उत्तरकालीन साहित्य पर जैनधर्म की छाप तथा जैन प्रभाव के सूचक सकेत मिलते है । प्राचीन यूनान के पाइथागोरस एव एपोलोनियस जैसे शाकाहारी व आत्मवादी दार्शनिकों पर भी जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट रहा है और यह तब तक सभव नही है, जब तक वे किसी जैन साधु सन्त के सम्पर्क मे न आए हो। इस प्रकार जैनधर्म की प्राचीनता व ऐतिहासिकता के सूत्र देश-देशांतरी मे कई रूपों में उपलब्ध होते है जिनका भलीभांति अध्ययन व विवेचन इस युग की मुख्य माग कही जा सकती है। 00 और जैनधर्म एव दर्शन पर सार्वजनिक भाषण भी दिये थे। व्यापारार्थ भी छुट-पुट जैन वहां जाते-आते रहते है, शायद कुछ एक वहां बस भी गये है बौद्ध, ईसाई, मुसल मानों आदि जैसा मिशन से धर्म प्रचार तो जैनो मे प्राय: कभी रहा नही वह उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। एक बौद्ध देश का पुरातत्व विभाग, वहा प्रतिद्वन्द्वी जैन धर्म का कोई पुरातत्त्व मिलता भी है तो उसमे को दिलचस्पी क्यो लेने लगा -- उसके कार्यकर्त्ता ईमानदार भी हो तो अनभिज्ञता तथा जैन एवं बौद्ध परम्पराओ के अनेक सादृश्यों के कारण जैन पुरावशेषों को चीन्हना भी प्रायः दुष्कर है। फिर प्रायः गत २००० वर्ष मे ध्वस ही तो हुआ है, कोई भी जैन निर्माण शायद नही हुआ । जो जैन अवशेष रहे भी होगे, उन्हें बौद्ध मन्दिरो विहारो आदि में तथा जनता द्वारा अपने भवनों आदि में इस्तेमाल कर लिया होगा। इसके अतिरिक्त किसी विशेषज्ञ टीम द्वारा श्रीलंका का जैनावशेषो एव चिन्हो को खोजने के लिए कोई सर्वेक्षण भी नही हुआ है। इस दिशा मे कोई ठोस प्रयास किया जाय तो बहुत कुछ सामग्री मिलने की सम्भावना है। 00 -

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