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मनेकान्त
मगर का विजय नामक एक जैन राजकुमार लंका गया था विद्वान इस घटना की तिथि ई०पू० ३८ बताते हैं। इस और वहां उसने एक नए राज्यवंश की स्थापना की थी। प्रकार श्रीलंका के इतिहास के प्रारम्भ से लेकर ईस्वी सन् बौद्धग्रंथ महावंश से विदित होता है कि चौथी शती ई. के प्रारम्भ से कुछ दशक पूर्व तक उस देश का प्रधान धर्म पूर्व में इसी वंश में उत्पन्न सिंहल नरेश पाण्डुकामय ने जैनधर्म ही बना रहा। राजधानी अनुराधापुर में एक विशाल जैन बिहार तथा बौद्ध राजा वट्टगामिनी की विध्वंसलीला एवं धामिक अति भव्य जिनमन्दिर बनवाया था। ३री शती ई०पू० अत्याचारों के बावजूद भी श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व के मध्य के लगभग मगध सम्राट अशोक के मौर्य के पुत्र प्राय: महाकाल तक बना रहा । लंका के इतिहास से पता महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा के द्वारा लंका में बौद्ध धर्म का चलता है कि ५वीं शती में जब लंका नरेश कस्सप प्रथम सर्वप्रथम प्रवेश हुआ, किन्तु उसकी विशेष प्रगति नही हुई द्वारा निर्वासित होकर राजा मोग्गलन को १८ वर्ष तक लगती और उससे जैन धर्म प्रायः अप्रभावित रहा, क्योंकि भारत में रहना पड़ा था तो उसने लंका निवासी जैनों २री शती ई०पू० में कलिंग चक्रवर्ती जैन सभ्राट खारवेल तथा सेनापति मिगार के साथ गुप्त संपर्क बनाये रखे थे। ने लंका में अपने दूत एव धर्मप्रचारक भेजे थे और लका किन्तु जब ४६५ ई० में मोग्गलन राज्य को पुनः प्राप्त के प्राचीन ऐतिहासिक अभिलेखों से स्पष्ट है कि लंका- करने में सफल हया तो उसने जैनों की उपेक्षा की और नरेश खलतग (१०६-१०३ ई० पू०) के समय में भी शिलाकाल द्वारा लाये गये बुद्ध के अवशेषों के स्वागत तत्कालीन राजधानी श्रीगिरि (सिगिरिया) के निकटस्थ समारोह में ही ब्यस्त रहा। कस्सप बौद्ध गया जाकर अभयगिरि पर एक विशाल जैन बसति (विहार) विद्यमान बौद्ध भिक्षु बन गया। ७वी-८वीं शताब्दी ई० में भी जैनथी जिसमें अनेक जैन मुनि साधनारत रहते थे। कुछ समय धर्म और उमके अनुयायियों का अस्तित्व श्रीलंका में था, पश्चात् लंका नरेश वट्टगामिनी के शासनकाल में तमिल इस बात के स्पष्ट निर्देश मिलते हैं। इतना ही नही, एक देशवासी किसी राजा ने लका पर आक्रमण किया। कोलंब- प्रायः तत्कालीन शिलालेख से प्रकट है कि ११वीं शती ई० हलक स्थान मंकविधय भी उनसे मिल गया और लका के के कर्णाटक के एक जैनाचार्य यशःकीति उस समय के सिंहल नरश क साथ युद्ध हुआ। राजा बट्टगामिना पगाजत हाकर नरेश द्वारा अपनी राजसभा में सम्मानित किए गए थे। युद्धभूमि से भाग गया। कहते हैं कि जब वट्टगामिनी अपने
१ मई १९८३ के दैनिक टाइम्स आफ इडिया साथियों के साथ भागता हुआ अभयगिरि की जैन बसति में प्रकाशित अपने एक लेख में श्री पी० बी० राय चौधरी के निकट पहुंचा तो उक्त विहार के जैनाचार्य मुनि गिरि ने र
मुनि गिार ने ने यह प्रश्न उठाया है कि क्या कारण जब बौद्ध धर्म तो इस कायरतापूर्ण पलायन के लिए उसका उपहास एवं
श्रीलंका पर प्रायः पूरी तरह छा गया, जैनधर्म के अस्तित्व भर्त्सना की थी। इससे वह राजा चिढ गया और उसने
के वहां कोई चिह्न नही प्राप्त होते। विद्वान लेखक एक प्रतिज्ञा की कि यदि कभी वह अपना राज्य पुनः प्राप्त कर मास लंका मे रहकर आए हैं और वहा के पुरातत्व विभाग लेगा तो इस जन विहार को नेस्तनाबूद कर देगा। सयोग सोपकिया किन्त उन्हें यही बताया गया से कुछ समय बाद वह सफल हो गया और अपने राज्य
किसी भी जैन मन्दिर, मूर्ति या कलाकृति के कोई अवशेष पर पूनः स्थापित हो गया; ८८-७७ ई०पू० में १२ वर्ष बाब र नही उस्त लेखक उसका यह शासन रहा उस अवधि में वट्टगामिनी ने उक्त का अनुमान है कि जैनों का जीवनदर्शन, आचार के कठोर एवं अन्य अनेक जैन मन्दिरों एवं विहारों को जो उसके नियम तथा दिगम्बरत्व ही श्रीलका में जैनधर्म के प्रसार में पूर्ववर्ती राजाओं ने वावाए या संरक्षित रखे थे, नष्ट करवा बाधक रहे हैं। कर उसके स्थान म बौद्ध मन्दिर और बिहार बनवाये। हमारे विचार से यह अनुमान किसी अंश तक सत्य हो इसी राजा के समय में सिहल में बोड त्रिपिटक के संकलन सकता है. सर्वथा नहीं। स्वयं भारतवर्ष के प्रायः प्रत्येक लिपिबद्ध करने का सर्वप्रथम प्रयास किया गया। कुछ
(शेष पृ०८ पर)