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विचारणीय प्रसंग
एव इति हेतोरखण्डज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्वं जिनशासनं ज्ञातं भवति ।' जयसेनाचार्य
उक्त टीका में 'अज्ञान शुद्धात्मनि शासति 'अखंडज्ञानरूपे पद का मनन करने पर 'अपदेससंतमजा' का तदनुकूलपूर्ण संगत अर्थ स्पष्ट होता है। तथाहि - 'अपवेस' का अर्थ अखण्ड और 'संतम' का अर्थ ज्ञानरूपे युद्धआत्मनि । यहाँ आचार्य ने 'संत' का अर्थ काल्पनिक और अप्रासंगिक शान्त रस जैसा सविकल्प भाव न करके प्रसंग सम्मत सत्-सत्त्व अर्थात् आत्मा किया और ज्ञानमयको विकल्पातीत आत्मा का विशेषण बनाया है । शुद्ध प्रकृत में यदि आचार्य को शान्त रस इष्ट होता तो वे टीका में 'अज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्व जिनशासनं ज्ञातं भवति पक्ति के स्थान में 'अखण्डशान्तरसरूपे शुद्धात्मनि इत्यादि पक्ति को स्थान देते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया । अपितु उक्त प्रसंग में भेद दृष्टि के परिहार और अभेददृष्टि के पोषण के लिए आचार्य ने लवण का दृष्टान्त ही दिया। वे कहते हैं कि - "यथा लवणखिल्य एकरसोऽपि फलशाकपाकादिपरद्रव्य सयोगेन भिन्न-भिन्नस्वादः प्रतिभात्यज्ञानिनां ज्ञानिनां पुनरेकरस एव तथाSSत्माप्यखण्डज्ञानस्वभावोऽपि • विषयभेदेनाज्ञानिना निविकल्पसमाधिभ्रष्टाना वंडर ज्ञानरूपः प्रति प्रति ज्ञानिनां पुनरखण्ड केवलज्ञानरूप एव । "
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जैसे लवण की डली एक रस व्याप्त है और वह वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञो को फनशाक-पत्रशाकादि के संयोगो के कारण भिन्न-भिन्न स्वाद वाली मालूम होती है और शानियों को अण्ड एकक्षाररसरूप अनुभव में आती है वैसे ही अखण्ड ज्ञानस्वभावी आत्मा भी निविकल्पसमाधि से रहित जीवो को विभिन्न ज्ञेय रसादि अनेकरूपो मे प्रतिभासित होती है और ज्ञानियों को अक्षय केवलज्ञानरूप प्रतिभासित होती है। प्रसग मे 'अपदेससंतमज्झ' पद इसी भाव मे है । यहा वा गया है - जो ( अपदेस) अखण्ड (सतमज्झ ) सत्-सत्व अर्थात् आत्मा के मध्य अपने को स्थापित करता है अपने को निर्विकल्पदृष्टि से एक अभेदरूप, ज्ञानरूप या पंतम्यरूप जानता है वह जिनशासन को जानता है। यहां ज्ञान्तरस का कोई प्रसंग ही नहीं है।
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प्रसंग के संबन्ध में हम मनीषियों से निवेदन करते हैं कि वे समयसार की १५वी गाथा की पूर्ववर्ती १४वी और उत्तरवर्ती १६वीं गाथाओं का ध्यान पूर्वक मनन करें तो वहां उन्हें अखण्डज्ञानरूप आत्मा का ही प्रसंग मिलेगा'शान्तरस' नाम तक नहीं। यदि प्रकृत में आचार्य को 'संत' का अर्थ शान्त रस जैसा अभीष्ट होता तो वे कही उक्त गाथा में एक बार तो उसका नाम लेते या किसी टीका में उसका उल्लेख करते। चूंकि वे जानते थे कि 'गाणं सो अप्पा अप्पा सो जाणं ।' फलत. उन्होने अभेद निर्विकल्पज्ञान को आत्मा का रूप दिया। वे ये भी जानते थे कि जिनशासन को जानने का काम ज्ञान का है-शान्त रस का नही । अत उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि अखंड ज्ञानरूपे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्व जिनशासनं ज्ञातं भवति ।' अन्यथा वे कहते- 'अखडशान्तरसम्पे शुद्धात्मनि ज्ञाते सति सर्वजिनशासनं ज्ञान भवति ।'
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हम और सभी यह जानते है कि कोषों में 'संत' का थं शान्त भी मिलता है- शान्त रस नही। पर प्रसंग मे ( जैसी हमने प्रार्थना की) शान्त अर्थ का प्रयोजन न होने से और टीकाकार तथा अन्य आचार्यों द्वारा भी आश्मा अर्थ के ग्रहण किये जाने से हमने भी बाचायों को मान दिया है और आगमार्थ की पुष्टि की है। यह तो हम पहिले ही सयुक्तिक लिख चुके हैं कि आत्मा के प्रसग मे जहा भी रस के साथ 'शान्त' शब्द प्रयुक्त हो यहां उससे किसी रस-विशेष का ओविभव ग्रहण न कर 'विकार निरास' भाव ही लेना चाहिए— शान्ता. -निर्गता। शमिता इत्यादि इस प्रसंग में देखें- 'अनाविरक्तस्य तवायमासीद्' के प्रसग में हमारा 'विचारणीय प्रमग
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एक निवेदन और हम अपने को प्राजस एवं सहृदय ( सज्जन ) समझदार मानकर इस प्रसग के ज्ञाता मानने का दावा नही करते और ना ही दूसरो के स्वतंत्रमनमाने विचारों को अविचारित रम्य ही कहते हैं। हमारा आशय तो सभी को सम्मान देते हुए यह रहता है कि वे 'विचारणीय प्रसंग' पर सद्भावना पूर्वक विचार दे सकते हो तो देकर उपकृत करते रहे। विशेषु किमधिकन् ?
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