Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 122
________________ विचारणीय-प्रसंग (संत) 0 श्रीपचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली 'शब्दानामनेकार्थाः'-एक ही शब्द के शास्त्रों में अनेक पादन होने से विषय जटिल और अनिर्णयात्मक होते जा अर्थ मिलते हैं परन्तु प्रकरण जाने बिना शब्दमात्र से अर्थ रहे है आदि।' का अभीष्ट दोहन नही किया जा सकता । एतावतः हमने इस सम्बन्ध में हम निवेदन कर दें कि प्रसंग में हमें भी समयसार की १५वी गाथा के 'अपदेस संत' पद के ख्याति अथवा अर्थ-लाभादि की चाह नही और ना ही अपहा उद्घाटन में प्रसंग की उपेक्षा किये बिना 'संत' का मान कराने या करने का भाव । हम तो ज्ञाताओ के समक्ष अर्थ सत्-सत्त्व-आत्मा किया था और आचार्यों द्वारा 'विचारणीय-प्रसग' ही रखते हैं, निर्णायक नही। और प्ररूपित प्रमाण भी दिये थे कि 'अपदेससंतमज्झ' में संत- चाहते हैं कि जिनवाणी अक्षुण्ण-निर्मल रहे । हम क्षमा भी शब्द का अर्थ सत्-आत्मा है-शान्त-रस जैसा अर्थ नहीं मांगते रहते है । हमारा न किसी कोर्ट में मुकदमा पेश है (अनेकान्त वर्ष ३६ किरण २) इसके सिवाय 'शान्त-रस' और न हार-जीत का प्रश्न है। फिर, विद्वानो से हमे क्यों नहीं इस सम्बन्ध में भी हमने सयुक्तिक लिखा था ज्ञान-दान मिला है और दि० गुरु के आशीर्वाद मे हमे तथा पाठकों को इस विषय पर अन्य मनीषियो के विचार मनन का अवसर मिला है जिसका प्रवाह आज भी चाल भी मिले होगे। है। से मे हम सभी प्रकार नम्र हैं-हमारा कोई इसमें दो राय नहीं कि एक ही प्रसंग में विभिन्न मुकद्दमा नहीं । हाँ, कषाय-वश यदि किसी अन्य ने ऐसा प्रकार के अनेको विरोधी-विचार जब साधारण जिज्ञा- किया हो तो वह जाने, हम तो विद्वानों, त्यागियों, सभी के सुओं के समक्ष आते हैं तब प्रसंग और गहराई के ज्ञान के दास हैं। हमारा ऐसा भी भाव रहता है कि पाठक मनन अभाव में वे भ्रम मे पड जाते हैं कि किसे उचित और करें यदि जंचे तो ग्रहण करें, अन्यथा छोड दें। किसे अनुचित माने ? फलतः हमारे पास एक पत्र भी यद्यपि आत्मा स्वभावत सश्नेष व सयोग सम्बन्धों आया जिसमें लिखा था-कचहरी के अन्दर अपनी दलीन से रहित, अनन्य, स्व में नियत एवं स्व से अभिन्नकी पुष्टि करने के लिए वकील लोग कानून की धाराओ अपने मे एक रूप है तथापि नयाश्रित-छयस्थो की दृष्टि का Interpretation अपनी-अपनी सुविधा तथा मौके मे भिन्न२ दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि जैसे अन्य अनेक क्रमिकके अनुसार जज के सामने रखते हैं। कानून एक ही है विकल्पो रूप प्रतिभासित होता है। पर जो ज्ञाता समयपरन्तु उसकी भिन्न-भिन्न मान्यतायें बनाई जा रही हैं। वर्ती नयाश्रित एकागी और सविकल्प दृष्टि को छोड़कर बिल्कुल यही स्थिति हमारे धर्म की होती जा रही है। प्रमाणरूप-अभेद दृष्टि को प्राप्त करता है-आत्मा को विद्वान क्या साधु क्या सब अपनी-अपनी मान्यतानुसार 'अपदेस'-अखण्ड 'संतमज्'-सत्-सत्त्व अर्थात् आत्मा प्रतिपादन कर रहे हैं। साधु-साधु का, विद्वान-विद्वान का के मध्य-स्व मे स्थापित करता है वही जिनागम के और साधु-विद्वान का, विद्वान-साधु का विरोध रोज ही अन्तरंग को पूर्ण रीति से जानता है। भेद-दृष्टि वाला सामने आ रहा है। वस्तुस्थिति तो जैसी है वैसी ही नहीं जान सकता। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिए रहेगी परन्तु मुश्किल है हमारे जैसे अल्पज्ञ और सक्षेप आचार्य ने कहा है कि-'निर्विकल्पसमाधिभ्रष्टानां खंडबुद्धि वाले जीवों की। भिन्न-भिन्न मान्यतानुसार प्रति- खडरूप. प्रतिभाति, ज्ञानिनां पुनरखण्डकेवलज्ञानस्वरूप

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