Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 120
________________ ३२, वर्ष ३६, कि०३ अनेकान्त अथवा मन्द अनुभाग गत नो कर्म, कर्म-उदय, कर्मों का होते है लेकिन आपस में मिल जाने पर एक से प्रतीत होने तीव्र अथवा मन्द भाव से युक्त अनुभाग, जीव और कर्म लगते हैं । उसी प्रकार जीव और उपर्युक्त पुद्गल के परिका सयोग जीव नही है। क्योकि ये सभी भाव पुद्गल णाम पृथक-पृथक होते है और परस्पर मे मिल जाने पर एक द्रव्य के परिणाम है । आचार्य ने उदाहरण द्वारा समझाया से प्रतीत होने लगते है। उदाहणार्थ फिसी पुरप को मार्ग है कि व्यवहार नय से अध्यवसानादि भाव जीव उसी मे लुटते देखक. अवहार से कहा जाता है कि अमुक मार्ग प्रकार है जैसे कि मेना के निकनने पर सेना के समूह को लुटता है। उनी प्रकार जीव में कर्मादि देखकर व्यवहारी राजा व्यवहार में कहा जाता है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, लोग उन्हें जीव के कहने लगते हैं । जने मार्ग नही लुटता रूप, शरीर, सस्थान, सहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, है पुरुष लुटता है, उसी प्रकार से वास्तव मे कर्म, वर्णादि कर्म, वर्ग, वर्गणा, सर्धक, अध्यवसाय, अनुभाग, योग- जीव के नहींहोते है।" सगारी जीवो के ससारावस्था में ही स्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्ध- उपर्युक्त कर्म, वर्णादि होते है। मुक्तावस्था में उसके नही स्थान, मरने शम्यान, सयमलब्धिस्थान जीव समास और होते है । यदि जीव के साय वांदि भावो का अभिन्न सबध गुण स्थान जी नहीं है ।“ क्षायिक भाव, झायोपर्शामक, होता तो जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं होता । औदयिक और औपशपिक भाव जीव नहीं है । चतुर्गति दूसरा दोप यह आयेगा कि पुद्गल द्रव्य को जीव मानना रूप समार परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, पडेगा।" अन एकेन्द्रि, द्वीन्दिर, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कूल, स्त्री, गुरुप, नपुमकादि पर्याय शुद्ध जीव के नहीं है।" पचेन्द्रिय जीप, बादर, सूक्ष्म, पत आप्ति ये सब नाम क्योकि वर्णादि उपर्यक्त भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम है। कर्म की प्रकृतिया है । ये मव व्यवहार नयी अपेक्षा अतः व्यवहार नय की अपेक्षा उपर्युक्त भाव जीव के कह- जीव दी है, वास्तव में (पारमाधिक प्टि में नहीं है। लाते है। जिस प्रकार दूध और पानी दोनो पृथक-पृथक (क्रमश) सन्दर्भ-सूची १. समयमार, गा०११ २. वही, गापा १५ १६ 'दविय त भागने अण्णभद 7 मत्तादो ।' वही, गा०६ ३. वही, गाथा १०८ ४. वही, गाथा ८ २०. प्र० सा० गा०।१४ ५. ..णेय दव्व. प्र. मा०, गा० ११३६ २१. (क) दविदि गच्छदि ताइ ताइ सम्मानजयाइ ज । ६. 'णेयं तोमालोय ।' वही, गा० ११२३ प० काय ६ ७. ....अट्ठा जयप्पगा।' वही, गा० १२८ (ख) दब्व सल्लमणिप उपादवपावतप जुत्तम् । ८. द्रष्टव्य-प० का० गा०६०, एव नि० सा०, गा०६ गुणपज्जयासय वा जन भण्मनि मरणहू ।। बही, गा० १० ६. प० का०, गा० १०८ १०. वही, गा० ४ (ग) अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादब्बयध्र वत्तमजुत्तम् । ११. छह दव्व णवायत्या पचन्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दा ताण कर सो सद्दिट्ठी मुणेचो॥ गुणव च सपज्जाय ज त दवत्ति वुश्चति । प्र० सा०२।३ दसण पाहुड, गा० १६ २२. सम्भावो हि सहायो ।प्र० सा०, गा० २।४।। १२. सू० पाहुड, गा० ५ २३. वही, गा० २७ १३. दब्बाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठमण्णयाभणिया । २४. इह विविहलक्खणाण लक्षणमेग यदित्ति सवगय ।प्र० सा०, ११७ १४. अत्थो खलु दन्बमओ। वही, २११ वही, गा०५ २१. वही, गा०२।६ १५. वही, गा० ८६ एव ८८ । २५.(क) ण हवदि जदि सद्दव्व अमद्भुव हवदि त कधदव्वं । १६. (क) दव्व सहावसिद्धं सदितिः। प्रवचनसार, २१६ हवदि पुणो अण्ण वा तम्हा दव्व सय सत्ता ।।(ख) सदवठ्यि सहावे दव्वति । वही, गा० २०१७ वही,गा। २।१३ १७. इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगय। २६. वही, ग० २।१५ २७. वही, गा० २।१६ मावचनसार, २१५ २८. जो खलु दबसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो। १६. पंचास्तिकाय, गा. सदवठि सहावे दव्वत्ति ॥. सा. २०१७

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