Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 73
________________ विचारणीय प्रसंग (धात्मा पीर शान्तरस एक विसंगति) तस्वार्थ सूत्र 'जैन आगम का महत्वपूर्ण सूत्र-ग्रन्थ है और जैन के सभी सम्प्रदायों में आबाल-वृद्ध बड़ी श्रद्धा से पढ़ा सुना जाता है। इसकी पवित्रता का सहज अनुमान इसी से होता है कि इसका एक बार पाठ करने से वाचक और धोता दोनों को बिना ही उपवास किए, एक उपवास का फल -लाभ हो जाता है। इसमे सात तत्त्वों के क्रम मे समस्त पदार्थों के मूल प्रवाहों और स्थितियों का दिग्दर्शन कराया गया है। इसके दूसरे अध्याय के प्रथम सूत्र मे जीव के भावों का वर्णन है। आचार्य ने जीव के भावो को पाँच विभागो में बाटा है तथाहि श्रपशमिकाको भावी मिश्रश्च जीवस्य स्व-सत्त्वमौदधिक पारिणामिको च' अर्थात् औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक श्रवधिक और पारिणामिक भाव जीव के स्व-तत्त्व हैं। ये सभी भाव जीव की अपेक्षा से हैं, शुद्ध आत्मा के परिप्रेक्ष्य मे नही । उक्त पाच भावों मे शुद्धात्माओं में औरशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भावो का अभाव तो सष्ट परिलक्षित होता है । औदयिक भाव के लक्षग मे तो यह भी कहा गया है कि द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणा फलप्राप्तिरुदयः' अर्थात् द्रव्य आदि के निमित्त वश से कर्मों की फलप्राप्ति उदय है और कर्म के उदय में होने वाला भाव औदयिक भाव है। जैसे साता वेदनीय के उदय में मानसिक-शारीरिक शान्ति या असातावेदनीय के उदय मे मानसिक-शारीरिक अशान्ति । यदि शान्तरस साता का ही नाम है तो वह कर्मोदयजन्य-संसारी होने से शुद्धात्मा मे नही बनता तथा सुखदुख भीतरपोपहारच' और 'कम्मशरीरमच भासानामपामह नुक्ल जीवनमरोह नायन्या समयसार प्रकरण टीका - देवनन्दाचार्य २०२, पृ० १२ के अनुसार सुख-दुखादि शरीरकृत उपकार भी हैं और शरीर भी नामकर्मोदयजन्य -- पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली है । फलतः शुद्ध आत्माओं में नामकर्म व शरीर तथा वेदनीयकर्म तीनों के अभाव मे सुख-शान्ति या शान्तरस की मम्भावना असंभव ठहरती है । इसके सिवाय जिन भव्यत्व, अभव्यत्व और जीवत्व को पारिणामिक भाव कहा है, यह कहना भी उपचार है। यतः भव्य, अभब्य दो भाव ऐसे हैं जो मुक्त होने और संसार मे सदा काल रहने की योग्यता शक्ति के परिप्रेक्ष्य मे है आत्मा के त्रैकालिक स्वभाव की अपेक्षा मे नही । तीसरा जीवत्य भाव भी आत्मा में सदाकाल रहने वाला भाव नहीं प्राणो पर अपेक्षित है और उपचार ही है। अत आचार्य ने इस भाव को भी औदयिक घोषित कर पर-निरपेक्ष चैतन्य मात्र को ही पारिणामिक मानने की घोषणा की है। तथाहि 'सिद्धा न जीवा जीविन्या इदि सिद्धाणं पि जीव फिल्म इन्डिजये ? ण, उपचारस्स सभ्यताभावायो । सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुबबत्तीवो जीवसं न पारिणामियं, किंतु कम्मविवागजं ...। तत्तो जीवभावो ओवइओ सि सिद्धं तच जीवभावत्स पारिणामियत्तं पविवं तं पाण धारण पटुच्च ण परुचिरं किंतु चेदमगुणमवलंबिय तत्थ परूवणा कबा । ' - षटम्खडागम, धवला पु० १४, ५।६।१६ पृ० १३ सिद्ध जीन नहीं है, जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं। शका सिद्धो के भी जीवत्व स्वीकार क्यों नहीं किया जाता ? समाधान- नही, सिद्धों में जीवत्व उपचार से ( कहा ) है (और) उपचार को सत्य मानना ठीक नही । सिद्धों में प्राणो का अभाव अन्यथा मन नही सकता इसलिए 'जीवत्व' पारिणामिक भाव नहीं है, किन्तु कर्मोदय जन्य है इसलिए 'जीव' (थ) भाव औधिक है ऐसा सिद्ध है । त० सूत्र में जो 'जीवन' को पारिणामिक कहा है

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