Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 74
________________ १२, वर्ष ३६, कि०२ अनेकान्त वह प्राण धारण की अपेक्षा से प्ररूपित नही किया किन्तु ४. 'शान्तं-सर्वोपाधि जितम्। चेतनगुण के अवलंबन से वहां प्ररूपणा की गई है। -पयनंदिपच० (टोका ४१) इसके सिवाय रहे क्षायिक भाव : सो जहा क्षायिक ५. 'विकल्पोमिभरत्यक्तः - शान्तः ।' भावों को कर्मों के क्षय से उत्पन्न भाव कहा गया है वहां -पधनंदिपंच० ४।२६ भी क्षय का अर्थ प्रध्वसाभाव है, अत्यताभाव नहीं। क्योंकि ६. 'विकल्पोजिमतं परं शान्तं ।' १५४ किसी द्रव्य का पर्यायरूप से ही नाश होता है, द्रव्यरूप से इसके सिवाय 'लघुतत्त्वस्फोट' में भी निम्नस्थलो पर नहीं। यतः-ज्ञानावरणादि रूप जो कर्मपर्याय है उसके आत्मा के सम्बन्ध में जहां रस शब्द का प्रसग आया है मोती जीव की वहां भाषाकार ने रस से चैतन्य, ज्ञायक या आत्म-रस को अपनी चैतन्य ज्ञानादि रूप पर्याय निर्मित नही होती। लिया है, शान्त-रस जैसे भाव को नहीं। तथाहि १. एकरमप्रभाव'-चैतन्यरस के एक प्रवाह स्वरूप । एक बात और है । वह यह कि जिस समय जीव की " -स्तुति १०, श्लोक ३ केवल ज्ञानादि पर्यायें प्रकट होती हैं उस समय तो ज्ञाना २. 'भिन्नरस स्वभाव:'-विभाव परिणति से भिन्न रस वरणादि कर्मों का अभाव ही है और अभाव को कार्यो वाला यह स्वभाव । --स्तुति १०, श्लो०६ त्पति में कारण माना नहीं जा सकता। अन्यथा खर ३. 'एवंकरसस्वभाव:'-एक ज्ञायक स्वभाव से सहित । विषाण को या शून्य से कुसुम उत्पत्ति को भी वैध मानना स्तुति १०, श्लोक १३ पडेगा। फलतः निष्कर्ष ऐसा है कि ये भाव कर्मों की ४. 'स्वरसेन'-आत्म रस से। - स्तुति १०, श्लोक १४ विच्छेद दशा मे आत्मा में प्रकट होते है। इसी कर्म. " विच्छेद यानी विकार-निरास को आचार्यों ने क्षय नाम से ५. 'चिदेकरसनिर्भर.'-एक चैतन्य रस से परिपूर्ण । कहा है और इसी क्षय या विकार-निरास को 'शान्त' -स्तुति १२, श्लोक २३ शब्द से भी इगित किया है-शान्त रस जैसे किसी पाठक यह भी विचारे जब आचार्यों ने पारिणामिक लौकिक-अलौकिक रस की उत्पत्ति होने को नही। जैसे नाम से प्रसिद्ध 'जीवत्व' जैसे भाव को भी उपचरित होने लोक में भी किसी के मरने (पर्याय बदलने) पर प्रायः के कारण शुद्ध आत्मा का स्वाभाविक भाव मानने से कह देते हैं कि – 'अमुक' शान्त हो गया-समाप्त हो निषेधकर, मात्र चैतन्य को ही स्वाभाविक भाव माना, गया, आदि। तब शान्त-रस जैसा कल्पित, औदयिक (क्षायिक ?) भाव, ___ 'शान्त' शब्द से विकार-निरास को इंगित करना जो लोक व्यवहाराश्रित है-शुद्ध आत्मा का स्वभाव कैसे निम्न शब्दो से भी स्पष्ट होता है-उपशमत्व, क्रोधादि हो सकता है ? अर्थात् नही हो सकता। आत्मा का शुद्ध अभाव, व्याधिविजित, विकल्पोज्झित आदि इन सभी स्वभाव तो "चिदेकरसनिर्भर ही आचार्य सम्मत हैएक भाव द्योतक शब्दो को 'शान्त' शब्द से इंगित किया अन्य नही। ___कई मनीषियों का विचार है कि दो विरोधी धर्मों गया है-शृंगारादि रसों जैसे किसी शान्त-रस के सद्भाव मे से एक का रह जाना अवश्यंभावी है, एतावता जब को इंगित करने के भाव में नहीं । तथाहि आत्मा मे अशान्त रस नही, तो शान्तरस अवश्य होगा। १. 'शान्तरसे'-शान्तः उपशमत्वं स एव रस. । ऐसे विचारको से हमारा निवेदन है कि-पहिले तो निर-परमाध्या० त० कलश ३२ पेक्ष वस्तुस्वरूप में द्वित्व या विरोध का प्रश्न ही मही। २. 'शान्तमहः'-किं भूतं महः शान्तं क्रोधादेरभावात् ।' फिर, यह भी आवश्यक नहीं कि विरोधी दो में से एक शेष -परमाध्या० त० कलश १२३ रह ही जाय । यदि एक विरोधी धर्म को शेष मानमा ३. 'परं शान्तं-सर्वव्याधिवजितम् ।' अवश्यंभावी माना जायगा तो आचार्यों के कथनानुसार -पपनन्दि पंच० १११८ जो सिद्ध भगवान जीव संज्ञा में नहीं हैं, उन्हें क्या 'जीव'

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