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सम्यक्त्व कौमुदी सम्बन्धी शोधलोन मनोवृत्ति का परिणाम है, जिसने वासुदेव विषयक कथन आबालवृद्ध स्त्री-पुरुषों के लिए एक शिक्षाप्रद रोचक एवं के स्थान में रेवती विषयक प्रसग यहां डाल दिया। ग्रथ पठनीय शास्त्र रहता आया है। मूल कथा में विवेकपूर्ण की समस्त उपलब्ध प्रतियो एव सस्करणो का सूक्ष्म धार्मिकता एवं नीतिमत्तता तथा उदारमयता पर विशेष निरीक्षण करने पर सभव है कि इस प्रकार के कुछ अन्य बल है और साम्प्रदायिक अभिनिवेष अत्यल्प हैं, इसी से पाठभेद, परिवर्तन, हस्तक्षेप आदि भी प्रकाश में आ वह सर्वग्राह्य हुई । जाय।
___अब प्रश्न यह है कि सम्यक्त्व-कौमुदी परम्परा का ६. सन् १३५० ई० के लगभग जिनदेव (नागदेव) मूलाधार या स्रोत क्या है ? क्या १३५० ई० के लगभग द्वारा संस्कृत मे विरचित उपरोक्त सम्यक्त्व-कौमुदी के जिनदेव अपरनाम नागदेव द्वारा रचित सस्कृत गद्यपद्यमयी अतिरिक्त उसी या उमसे मिलते-जुलते नाम की तथा उसी सम्यक्त्वकौमुदी ही वह मूलाधार या स्रोत है, अथवा के आधार से कालान्तर मे रचित तीस-पैतीस रचनाओ उसकी पूर्ववर्ती कोई अन्य रचना या ग्रथ है ? यदि जिनका पता चलता है। इसमे से १४०० ई० मे पूर्व की कोई देव कृत सम्यक्त्वकौमुदी ही इस परम्परा का मूलग्रथ है रचना नही है, दो तीन ही १५वी शती की है, शेष १६वी तो उसका प्रकृत रूप और आकार-प्रकार क्या था? स्वयं से १६वी शती पर्यन्त की है। ये रचनायें सस्कृत, अपभ्र श, उसकी सभी विभिन्न प्रतियो के तुलनात्मक सूक्ष्म परीक्षण कन्नड, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि कई से उसके जो स्पान्तर कालान्तर मे हुए उनका स्वरूप भाषाओं में विभिन्न लेखको द्वारा कभी-कभी विभिन्न निर्धारण तथा वे कबकब और किस-किस की कृपा से हुए, शैलियों में भी लिखी गई है। सम्यक्त्व-कौमुदी-चौपाई, इस विषय पर भी प्रकाश पड सकता है । विभिन्न लेखको समकित राम आदि विभिन्न नामरूप उागेत तथ्य के ही द्वारा रचित इम परम्परा की विभिन्न रचनाओ के तुलपोषक हैं। पं० पन्नालाल जी (वही प्रस्तावना पृ० ८) नात्मक अध्ययन में उसके विकास-क्रम पर तथा अतरों की सूचनानुमार सम्यक्त्व-कौमुदी की कथाओ का एक परिवर्तनो, सशोधनों, परिवर्धनी आदि पर प्रकाश डाला रूपान्तर हिन्दी पद्य मे विरचित सम्यक्त्वलीलाविलाम के जा सकता है । सम्यक्त्व-कौमुदी की कथाओ के बीजों को नाम से प्राप्त है, जिसकी हस्तलिखित प्रतिया यत्र-तत्र पूर्ववर्ती दिगम्बर एव श्वेताम्बर तथा जैनेतर लोककथा कई शस्त्र-भडारों मे मिलती है-एक प्रति गोराबाई जैन साहित्य में भी खोजने की आवश्यकता है। ग्रन्थ मे उदमन्दिर कटरा सागर के सरस्वती भवन मे भी विद्यमान धृत सूक्तियो, सुभापितो आदि के मूल स्रोतो को खोज है। उसके कर्ता का नामादि कुछ सूचित नहीं किया गया। निकालना भी उपयोगी होगा। जैन कथा-साहित्य मे, रचना अभी अप्रकाशित है। शास्त्र-भडागे की खोज करने भारतीय कथा-साहित्य मे तथा विश्वकथा-साहित्य में इस से सम्यक्त्व-कौमुदी विषयक और भी कई रचनाये प्रकाश कथाग्रथ का मूल्याकन करके स्थान निर्धारण करना एक में आ सकती हैं। प्रत्येक रचना की सभी प्राप्त पाडु- रोचक अध्ययन होगा। और इस कथाअथ अथवा सम्यक्त्व. लिपियों का निरीक्षण करने से उनमे परम्पर तथा अन्य कोमुदी परम्परा की समस्त रचनाओ का तुलनात्मक कतक रचनाओं के माथ रहे पाठभेदो, अन्तगें, विशेषताओं सांस्कृतिक अध्ययन भी आनन्दवर्द्धक होगा। आदि का भी पता चल सकता हैं।
वस्तुतः, मम्यक्त्व-कौमुदी साहित्य एक उत्तम गवे. इस प्रकार विभिन्न समयो, विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न षणीय अन्वेषणीय विषय है जिस पर एक अनुसंधित्सु भाषाओं एवं शैलियो में उभय मम्प्रदायो के विभिन्न शोधार्थी, श्रमपूर्वक सम्यक शोध-खोज करके किसी भी लेखकों द्वारा विरचित सम्क्त्वकौमुदी विषयक साहित्य की विश्वविद्यालय की पी-एच. डी० उपाधि के लिए उत्तम प्रचुरता एव विविधता को देखते हुए इस कथाग्रन्थ की शोधप्रबध प्रस्तुत कर सकता है और जैन विद्या के अध्ययन लोकप्रियता एव प्रचार-प्रसार मे कोई सन्देह नहीं रहता। की प्रगति मे सराहनीय योग दे सकता है। गत लगभग ६०० वर्ष से यह कथा अखिल जैनजगत में
ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ