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डिग्गी (राज.) के वि०
मन्दिर में उपलब्ध पद्मपुराण
दूसरा नाम सुभचन्द सेन भी दिया गया है । कवि ने अपने रचनाकाल वीर निर्वाण के १२०३ वर्ष एवं ६ माह बाद प्रथम नाम का उल्लेख मंगलाचरण की समाप्ति के बाद का लिखा है। ही किया है, तथा पुराण समाप्ति पर लिखी गई प्रशस्ति कवि के समय तुलसीदास जी की रामायण जन-जन में उन्होंने सुभचन्द सेन के नाम का प्रयोग किया है, जो मे लोकप्रियता प्राप्त कर रही थी। सामान्य जनता मे उनके सेनगणीय भट्टारक परम्परा का मुनि होने की ओर राम के जीवन को पढने, पढ़ाने की अभिरुचि बढ़ रही संकेत करता है । इसके पश्चात् अथ समाप्ति पर जो थी। हमी दष्टि को ध्यान में रखकर कवि ने हिन्दी पद्य पूष्पिका दी गई है उसमे सभाचन्द नाम दिया गया है। मे और वह भी केवल चौपाई एवं सोरठा छन्दो में पद्म
इति श्री पद्मपुराण सभाचन्द कृत 'सपूरन' कवि पुराण की रचना कर जैन समाज मे राम कथा के प्रति सभाचन्द ननि थे तथा उनका सम्बन्ध काष्ठासघ के सेन रुचि जाग्रत की। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे कवि ने भगवान गण से था। दिल्ली मण्डल उनका केन्द्र था। इसलिए राम के प्रति निम्न शब्दो में अपनी श्रद्धा प्रकट की हैमुनि सभाचन्द भी देहली में ही रहते थे, और उन्होने
राम नाम गुन अगम अथाह, ते गुन किस पै बरने जाइ। पद्मपुराण की रचना भी देहली मे रहते हुए की थी।
जो मुख राम नीमर, तो सकट बहुरि न परै ।२३। जिसका उल्लेख कवि ने निम्न प्रकार किया है।
जा घर राम नाम का वास ताके पापन आवे पासि ।। दिल्ली मडल का मुनि राई, जिमके पर भया बहु ठाई।
जिन श्रवणे राम जम सुने देव लोक सुख पावे घने ।२४॥ धरम उपदेश घणा कुभया, पूजा प्रतिष्ठा जामैं नया ।४१॥
सकट विपति पड़े जे आय, राम नाम तिहा होइ सहाय । पडित पदधारी मुनि भए, ग्यानवत करुणा उर थए।
जल थल वन विहडे ले नाम, मन वाछित सह सीझे काम ।२५॥ मलयकीर्ति मुनिवर गुणवत, तिनके हिये ध्यान भगवत ।४२० गुणकीर्ति अर गुणभद्रसेन, गुणवाद प्रकास जैन । प्रस्तुत पद्मपुराण ११६ विधानकों में पूरा होता है भान कीरति महिमा अति घणी, विद्यावत तपसी मुनी।४३। जबकि आचार्य रविपेण के पद्मपुराण में १२३ पर्व है। कमारसेन भटारक जती, किया श्रेष्ठ उज्वल मती। कवि ने पर्व का नाम न देकर उसका नाम विधानक लिखा उनके पट मुभचन्द्र सेन, धरम बरवाण सुनाव जैन ।४४॥ है। पद्मपुराण की पाण्डुलिपि में ११८ पत्र है जो
उक्त उद्धरण से उनके भट्रारक के पद पर अभिषिक्त १३४६इच आकार वाले हैं। एक पत्र में दोनों ओर होने का भी सकेत मिलता है।
करीब ५० चौपाई छन्द लिखे हुए हैं इस प्रकार यह पूरा ग्रंथ परिचय :
पुराण ६ हजार चौपाई एव सोरठा छन्दो में विभक्त किया मनि सभाचन्द ने आचार्य रविषेण के सस्कृत पद्म- हुआ है । प्रस्तुत पान्डुलिपि मवत् १८५६ आषाढ शद्धि पुराण की हिन्दी पद्य मे काव्य के रूप में रचना की थी। १४ सोमवार की है। लिपि कराने वाली थी गगाराम की कवि ने इसका उल्लेख पुराण के प्रारम्भ और अन्त दोनो पत्नी ने मांडलगढ़ में आटान्हिका व्रत के उपलक्ष में में किया है।
पंडितोत्तम पडित मोतीराम जी के पाम प्रतिलिपि करवाई आचार्य रविषेण महंत सहसकृत मैं कीनो ग्रन्थ । थी। लिपि सुन्दर एव स्पष्ट है। कागज सागानेरी है । ग्रथ महामुनिवर ज्ञानी गुनी, मति श्रुति अवधि ग्यानी मुनी। प्रशस्ति के पश्चात मूल सघ मरस्वती गच्छ के मुनि रत्नमहा निग्रंथ तपस्वी जती, क्रोध मान माया नही रली ।३१ कीर्ति एवं उसके शिष्य रामचन्द्र मुनि का भी वर्णन किया पृष्ठ । कवि ने रविषेण के सम्बन्ध मे लिखा है कि वीर गया है जो निम्न प्रकार .निर्वाण में १२०० वर्ष और ६ महीने व्यतीत होने पर श्री मूलसघ सरस्वती गच्छ, रत्नकीरत मुनि धरम का पच्छ,
आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण की रचना समाप्त की तारण तरण ज्ञान गभीर, जाणे मह प्राणी की पीर । थी। यह समय स्वय रविषेण द्वारा लिखे हुए समय से तप संयम ते आतम ज्ञान, धरम जिनेश्वर कहे बखान, तीन वर्ष से कम हैं । क्योंकि रविषेण ने पद्मपुराण का छुट मिथ्या उपजै जान, जे निगचे धरि मन में आन ।।