Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 97
________________ पर्युषण कल्प दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग भाद्र कृ. ४ को पूरे होते है । अतएव पहली बार भाद्र आदि व्यवहारकाल की गणना प्रारम्भ (स्थापित) की। शु० ५ के दिन वे लोग विजयाद्ध की गुफाओ में से बाहर इसी गणना के अनुसार अवसर्पिणी के छठे (दुखमा-सुखमा) निकलते है और परस्पर मिलते हैं। उस समय उनकी काल के अंत मे ४६ दिन पर्यन्त (ज्येष्ठ कृ० ११ से कषाय अति मन्द होती हैं । इसी उपलक्ष्य मे उस दिन से आषाढ़ शु० १५ तक) भयकर प्रलय होती है । सवर्तक चतुर्दशी पर्यन्न उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्मों का विशेषनामक प्रलय पवन चलती है, सात-सात दिन सात प्रकार रूप से चिन्तन, मनन व आराधना करने के लिए उस भीषण कुवृष्टियाँ होती हैं । परिणाम स्वरूप भयकर विध्वस पुनीत पर्व की प्रवृत्ति चली आ रही है। पर्युषण शब्द के होता है, अधिकांश मनुष्य व जीवजन्तु नष्ट हो जाते है। पर्युषण, पर्युरवास, पर्युपासना, पर्यपशमन आदि जो विभिन्न उस कुसमय में देवादिक की कृपा से कुछ एक प्राणी रूप प्राप्त होते है, उन सबके वाच्यार्थों से भी यही सष्ट विजयार्द्ध पर्वत की गुफाओ मे आश्रय पाते है । श्रावण होता है कि भाद्रपद का यह दशलक्षण अपर नाम पर्युपण कृ. १ से सात सप्ताह तक सात प्रकार की सुवृष्टिया पर्व आत्ममाधना, आत्मालोचन, आत्मनिरीक्षण, आत्माहोती है, जिससे प्रलयकाल की प्रचण्डता कुछ शान्त होती नुशासन, आत्मजागृति एव आत्मोपलब्धि का महान है और पृथ्वी फिर से रहने के योग्य होती है। ये ४६ दिन पर्व है। ( पृष्ठ ७ का शेष) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होते का स्वतन्त्र अस्तित्व लोा हो चुका था और गणो का थे। अत. यह नई कालगणना भी कार्तिक शुक्ल एकम् से स्थान राजा ले चुके थे। इस परिवर्तित स्थिति में इस आरम्भ की गई और इस नये सवत् को 'कृ' अर्थात' सवत् का प्रपनन करने वाले नायक, जो तत्कालीन विचारकार्तिकादि संवत् नाम दिया गया। बाद में लगभग ५वी धारा के अनुमार कोई महान नरेश ही हो सकता था, की शताब्दि ईस्वी के प्रारम्भ में जब चैत्र मास से प्रारम्भ खोज अनुश्रुनियो में की गई । सयोगसे अनुश्रुतियो में होने वाले कुछ परवर्ती सवत्, यथा-शक सवत् जो इम मालवगण के उम नायक का नाम विक्रम मिला अतः ८वी सवत् के १३५ वर्ष पश्चात् महावीर निर्वाण सवत् ६०५ से १०वी शती ईम्बी के मध्य के लेखो में 'मालवगण' नाम अर्थात् ईस्वी सन् ७८ मे आरम्भ हुआ था, कल्चुरि या क्रमश 'मालववशकीति', 'मालवे', 'विक्रम' और 'राजा चेदि सवत, गुप्त या वल्लभी सवत् अधिक प्रचलन प्राप्त विक्रमादिन्य' नामो में परिवर्तित होता चला गया। उत्तर हुए तो उसकी देखादेखी उत्तर भारत में विक्रम सवत् के और दक्षिण भारत के अनेक पराक्रमी महान राजाओं ने मानने वालो ने उसे भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्म अपने नाम के आगे 'विक्रमादित्य' विरुद लगाकर विक्रमानना शुरू कर दिया यद्यपि दक्षिण भारत मे उसे अब मादित्य नाम को पहले ही काफी विख्यात कर दिया था। भी कार्तिकादि सवत् मानते है। इस परिवर्तन के फल- अत: अनुश्रुतियों में इस सवत् के प्रवर्तक का नाम विक्रम स्वरूप इस सवत् का नाम 'कृत सवत्' निरर्थक हो गया। पाते ही इम सवत को 'विक्रम संवत्' के नाम से प्रख्यात उस समय मालव जाति का स्वतन्त्र अस्तित्व बना हुआ कर दिया गया और आज तक इसी नाम से जाना जाता था। अत: मालवगण की प्राचीन कीति को उजागर करने है। विक्रम संवत् के विषय मे विस्तृत विवेचन इतिहास के उद्देश्य से इसे 'मालव' या 'मालवगण' सवत् नाम दिया मनीषी डा० ज्योति प्रमाद जैन की पुस्तक 'दी जैना सोर्सेज गया । आठवी शती ईस्वी आरम्भ होने तक मालव जाति आफ दि हिस्ट्री आफ एशिएण्ट इण्डिया' में द्रष्टव्य है।

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