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नव वर्ष दिवस
वर्द्धमान महावीर के अनुयायियो ने उनके निर्वाण की घटना एक साथ प्रयोग किया गया है। वर्ष ४८१ से वर्ष ६३६ को अपनी कालगणना का आधार बनाया तो महात्मा बुद्ध के बीच के लेखों में निम्न लिखित कुछ अपवादों को छोड़के अनुयायियों ने भी उनके परिनिर्वाण से अपनी काल- कर इसे 'मालव' या 'मालवगण' सवत् नाम दिया गया गणना आरम्भ की । कही कालगणना किसी व्यक्ति विशेष है। वर्ष ७७० के दो लेखों में इसे न तो 'कृत' नाम दिया के जन्म से आरम्भ हुई तो कही किसी के अभ्युदय से अथवा गया और न मालव' अपितु मात्र 'सवत्सर' कहा गया है निधन से । राजनैतिक इतिहास में अनेक ऐसे दृष्टान्त हैं जो वर्ष, संवत् या सन् का पर्यायवाची है। वर्ष ७९४ का जब पराक्रमी व महात्वाकाक्षी नरेशों द्वारा अपने जन्म, एक शिलालेख पहला उपलब्ध अभिलेख है जिसमे इसे राज्यारोहण या विजय की स्मृति मे नया संवत् या काल- 'विक्रम संवत्सर नाम से अभिहित किया गया है । वर्ष गणना प्रारम्भ की गई । किसी गण, जाति या वश के ८६८ के एक लेख मे इसे 'विक्रमाख्य काल' काल कहा सना में आने पर उसकी स्मृति स्वरूप भी सवत् का प्रव- गया। वर्ष १.२८ और उसके बाद आज तक इस सवत तन हआ । इतिहास काल की इस हजारो वर्षों की अवधि में जो विभिन्न अभिलेख आदि है उनमें इसका उल्लेख मे भारत मे कालगणता के इन आधारो ने कितनी बार 'विकन सवत' मे रूप में मिलता है। नये-नये सवतो के रूप में जन्म लिया और उनमे से कितने साहित्य मे यद्यपि इस सवत् का प्रयोग कुछ देर से कालकवलित हो गए कहना कठिन है। फिर भी जो आरम्भ हुआ इसे 'विक्रम सवत्' का ही नाम दिया गया। भारतीय धर्मनिरपेक्ष सवत आज तक देश के बहुभाग में सातवी-आठवी शती ईस्वी के जैन ग्रन्थो--दिगम्बर नन्दि सर्वाधिक प्रचलित चले आ रहे हैं वे दो है-विक्रम संवत् सघ और श्वेताम्बर तपागच्छ की पट्टावलियों में और और शक-संवत् । यद्यपि शक सवत् को हम राष्ट्रीय पचाग आचार्य हरिभद्र की 'आवश्यकवृत्ति' मे तीर्थकर महावीर मे अपना चके हैं । विक्रम-सवत् भारतीय जन-मानस को की तिथि निर्धारण हेतु अपनी परम्पराओ का विवेचन उससे अधिक प्रिय है।
करते हुए विक्रम संवत् की चर्चा की गई थी। कदाचित पचांग के अनुसार इस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (१४ अप्रैल आठवी शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध मे हुए आचार्य बीरसेन १९८३) को विक्रम संवत् को आरम्भ हुए २०४० वर्ष सर्वप्रथम विद्वान लेखक थे जिन्होंने विक्रम सवत मे तिथि हो जायेगे अर्थात् यह सवत् (२०४०-१९८३) ईस्वी सन् अकित को थी। दसवी-ग्यारहवी शती ईस्वी में हुए से ५७ वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ माना जाता है। इस काल- अनेक जैन विद्वानो द्वारा अपने ग्रन्थो मे विक्रम संवत गणना का आरम्भ पश्चिम भारत मे उज्जयिनी मे मालव मे तिथि अकन को अपनाया गया और तदनन्तर इस जाति अपने पराक्रमो नेता विक्रम के नेतृत्व में वहा पर सवत् का साहित्य में व्यवहार करने की परिपाटी चल कब्जा कर रहे विदेशी शकों को परास्त कर उन्हें वहा से पड़ी। निकाल देने की घटना की स्मृति में हुआ बताया जाता उत्कीर्ण लेखो, शिलालेखो और अभिलेखो आदि में है। यह उनकी विदेशी आक्रान्ताओ पर विजय का स्मृति इस सवत् के कृत, मालव और विक्रम जो तीन नाम क्रमशः चिह्न है। जैन परम्परा के अनुसार यह घटना महाबीर मिलते है वे इस सवत् के नामकरण की क्रमिक कहानी निर्वाण सवत् ४७० मे घटित हुई थी।
बताते है। जब यह कालगणना आरम्भ की गई उस उपलब्ध प्राचीन उत्कीर्ण लेखों, शिलालेखो, अभि- समय उससे पूर्व के जो सवत् अधिक प्रचलन प्राप्त थे; लेखों आदि का अध्ययन करने से विदित होता है कि इस जैसे-महावीर निर्वाण सवत् और शकों द्वारा उज्जयिनी नई कालगणना के वर्ष २८२ से ४८१ तक के जो अभि- पर अपनी विजय की स्मृति में लागू किया गया शक संवत, लेख अभी तक मिले है, उनमे इसका नाम 'कृत सवत्' जो उपयुक्त मालवगण की विजय की घटना से मात्र वर्ष दिया है । वर्ष ४६१ के लेखों और वर्ष ४८१ के एक लेख पूर्व महावीर निर्वाण संवत् ४६१ में आरम्भ हुआ था, वे में इस संवत् के लिए 'मालवगण' और 'कृत' शब्दों का
(थेष पृष्ठ पर)