________________
सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी शोधलोज
कवि, वादिभूषण और श्रुतसागर द्वारा रचित सम्यक्त्व- नामक धर्मकथा-ग्रन्थ पाठकों एव श्रोताओं में सम्यक्त्व गुण कौमुदी नामक ५ रचनाबो का, जो सब दिगम्बर प्रणीत को अकुरित एव पुष्ट करने के उद्देश से १३५० ई० के तथा संभवतया यशकीति की कृति को छोडकर सस्कृत मे ___ लगभग रचा गया था और जो १९१५, १९२८, १९३६ रचित प्रतीत होती है, उल्लेख किया है। एक श्वेताम्बर तथा १९७५ ई० के पूर्वोक्त मद्रित-प्रकाशित स संस्कृत रचना तथा उसी परम्परा की १७वी से १८वी प्रप्त है, वही इस नाम की सर्वप्रथम रचना है। शती मे रचित ६ राजस्थानी रचनाओ का सूचन किया २. उसकी जितनी हस्तलिखित प्रतियो का उल्लेख है। अपने एक अन्य लेख 'सम्यक्त्व-कौमुदी सम्बन्धी अन्य हमने अपने पूर्वोक्त लेखो मे किया है, ऐसा प्रतीत होता है रचनाएं एव विशेष ज्ञातव्य' (अनेकान्त वर्ष ३५, कि० २, कि देश के विभिन्न छोटे-बडे शस्त्रभण्डारो मे उनसे कहीं
-जन ८२, १०८) में स्व० नाहटा जी ने पाश्वनाथ अधिक संख्या में प्रतिया विद्यमान हैं। विद्याश्रम वाराणसी से प्रकाशित 'जैन साहित्य का वृहद
३. ऐसा लगता है कि ग्रन्थ के दो रूप भी पर्याप्त इतिहास', भाग ७ के आधार से दयासागर (दयाभूषण),
समय से प्रचलित रहते आये है-एक बृहद् रूप और एक महीचन्द्र, देवेन्द्रकीति और क. भ.निटवें द्वारा मराठी
सक्षिप्त रूप । सन् १९७५ वाले सस्करण में वृहद रूप भाषा मे लिखित चार रचनाओं का उल्लेख किया है, जो
प्राप्त होता है । जिसमे उद्धृत सूक्तियो-श्लोको आदि की सब दिगम्बरकृत है। नाहटा जी ने श्वेताम्बर जिनहर्ष
सख्या ५४० के लगभग है, गद्याश भी कही-कही अधिक गणि द्वारा १४३० ई० में संस्कृत में रचित सम्यक्त्व
या विस्तृत है, जबकि १६१५ आदि के उसके पूर्ववर्ती कौमुदी का तथा १९१७ ई० मे प्रकाशित उसके गुजराती
संस्करणो मे सक्षिप्त रूप प्राप्त होता है जिसमे उद्धरणों अनुवाद का भी उल्लेख किया है। शोधांक ४८ (६ मई
की सख्या लगभग २१० है। जैसा कि प. पन्नालाल जी ८२, पृ० ३०२-३०३) मे प्रकाशित अपने लेख 'सम्यक्त्व
ने अपनी प्रस्तावना (पृ. ६) में लिखा है, "इसके बृहद् कौमुदी के मबन्ध में हमने विद्वद्वय नाहटा जी का उनकी
और सक्षिप्त दो रूप कैसे हो गये यह भी विचारणीय है। अतिरिक्त सूचनाओं के लिए आधार मानते हुए उनकी
ऐसा लगता है कि इसके बृहद् रूप को ही परिमाजित कर कतिपय सदिग्ध सूचनाओं की समीक्षा भी की है और
सक्षिप्त रूप निर्मित कर दिया गया है। सुभाषितों की अपने मूल प्रश्न पर बल दिया है कि क्या जिनदेव अपर
अधिक भरमार हो जाने से कथा की रोचकता मद हो नाम नागदेव कृत सस्कृत सम्यक्त्व कौमुदी ही तन्नाम
जाती है। जिस प्रकार बहुत अधिक आभूषणो से सुसज्जित मूल अथवा सर्वप्रथम रचना नही है ?
स्त्री की स्वाभाविक सुन्दरता समाप्त हो जाती है, उसी उपरोक्त लेखो को लिखते समय हमारे सामने तथा प्रकार बहुत भारी सुभाषितो अथवा अलकारो से कथा की संभवतया श्री नाहटा जी के सामने भी, पं० पन्नालाल जी स्वाभाविक रोचकता समाप्त हो जाती है। इसी अभिसाहित्याचार्य द्वारा सपादित-अनूदित तथा १९७५ ई० मे प्राय से किसी विद्वान ने इसका मक्षिप्त रूप निमित किया शान्तिवीरनगर श्री महावीर जी से प्रकाशित सस्करण है। कथा वही रही है, भाषा भी प्राय वही है, परन्तु नही था। इस संस्करण की पंडित जी द्वारा लिखित सुभाषितों का मकलन कम किया गया है। कही पात्रों के प्रस्तावना से तथा सम्यक्त्व-कौमुदी के इस पाठ के साथ नामादिक मे भी कुछ परिवर्तन किया गया है। इन दोनो १९१५ वाले संस्करण के पाठ का तुलनात्मक दृष्टि से के कर्ता हमारे लिए अज्ञात है।" बहद रूप के उपोद्घात अवलोकन करने पर कई अन्य रोचक एवं महत्वपूर्ण तथ्य मे सम्यक्त्व के स्वरूप एव माहात्म्य का मुन्दर व्याख्यान है उजागर हुऐ :
जो सक्षिप्त रूप में नहीं है। अन्य भाग तथा अन्यत्र भौ १. अधुना ज्ञात एवं उपलब्ध स्रोतो से विदित है कि सक्षेप-विस्तार के अतर हैं। पूर्ववर्ती विविध साहित्य से उद्धृत प्रसगोपयुक्त सूक्तियों से ४. इसी ग्रन्थ का एक तीमरा प श्री पं० रतनभरपूर सरल संस्कृत गद्य मे निबद्ध जो सम्यक्त्व-कौमुदी लाल जी कटारिया केकटी के मग्रह में प्राप्त है, जिसमे