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४,पर्व ३६, कि०३
अनेकान्त उनके अनुसार मुद्रित प्रति से बहुत विशेषता है-कई एवौषधदानमपि दातव्यं ।' जबकि १९७५ के संस्करण में श्लोक अधिक हैं और कितने ही गद्य-खण्ड विभिन्न प्रकार द्वारवत्या वासुदेवेन औषधदानं भट्टारकस्य दत्तं तेनौषधके हैं। उसकी पत्र संख्या ७५, आकार १x६", प्रत्येक दान फलेन तीर्थकर नामकमोपाजितमत एवोषधदानमपि पृष्ठ पर १३ पंक्तियां और प्रत्येक पक्ति मे ३५ के लगभग दातव्यम्' पाठ है। मूलपथ में इन दोनों में से कौन सा अक्षर हैं। इस प्रति तथा मुद्रित प्रति के मगलाचरण पाठ रहा, यह समस्या है। मूल अथ और उसके कर्ता संबन्धी प्रलोको मे भी पाठ भेद है, आगे भी पर्याप्त पाठ- दिगम्बर आम्नाय के है, यह सुनिश्चित है। हरिवशपुराण भेद होने की संभावना है। इस प्रति के पाठ में एक विशे- आदि मे द्वारिका नगरी मे बासुदेव कृष्ण द्वारा एक मुनि षता यह है कि इसमे छठी कथा तक का भाग पूर्णया को औषधदान करने का प्रसग है, उसका बड़ा महात्म्य पद्य रूप में ही दिया गया है, गद्य में बिल्कुल नही, मानवी भी बताया गया है, और नारायण कृष्ण द्वारा तीर्थकरव आठवी कथा गद्य में दी गई है। अन्य पप्पिका है - नामकर्म का बध करने की बात भी है। किन्तु रेवती 'इतिश्री सम्यक्त्वविपये अर्हद्दामकथाया मम्यन्य- नामक धाविका द्वारा भगवान महावीर को औषधदान कौमुदीग्रंथ समाप्त । ग्रथाग्र २३६८ श्लोक।' यह प्रति दिए जाने का दिगम्बर साहित्य मे कही कोई सकेत नही मूलसंघ-मरस्वतीगच्छवलात्कारगण श्रीकृन्दकन्दाचार्यान्वय है। दिगम्बर आम्नाय की सैद्धान्तिक मान्यता के अनुसार के भट्टारक सकलकोनि की परम्परा के भ० पमनदि के तो तीर्शकर को रोगादि शारीरिक व्याधि ही नही होती, शिष्य ब्रह्मकल्याण के प्रशिण्य ब्रह्मश्री भीमजी ने फाल्गुन अतएव उनके लिए औषधिदान दिए जाने का प्रपन ही वदि १४ भौमवार स० १७७४ (मन् ? १७ ई.) में नहीं होता । केवलीभगवान तो कवलाहारी भी नहीं होते। उदयपुर में लिखवाई था (देखिए १९७५ के मरकरण की दूसरी ओर, श्वेताम्बरागम भगवतीसूत्र (१५/५५७) आदि पं० पन्नालाल जी की प्रस्तावना, पृ० ८-५) । इस प्रकार में भगवान महावीर की केवलीचर्या के १५वें वर्ष मे ग्रंथ के तीन रूप तो अभी प्राप्त है। उगकी ममग्न ज्ञात मक्खलिगोशाल द्वारा तेजोलेश्या छोड़े जाने से भगवान के एवं उपलब्ध प्रतियों के निरीक्षण से कतिपय अन्य का भी शरीर में रक्तातिसार एवं दाहजन्य अत्यन्त पीड़ा होने, उस प्रकट हो सकते है। यह कहना कठिन है कि क्या मूल रोग के शमनार्थ स्वय अपने एक शिष्य को भेजकर मैढ़िया लेखक ने ही रचना को कई रूपो मे लिखा था, अथवा ग्राम निवासिनी गाथा पत्नी रेवती के घर से बिजौराउसके द्वारा रचित रूप में उनमे से कोई एक था और था पाक मगवाने, उसके सेवन से रोग का उपशमन होने, तो कौन था। सभावना है कि कथा की उपादेयता एव और उक्त औषधिदान के फलस्वरूप उस रेवती श्राविका लोकप्रियता से प्रभावित होकर किन्ही परवर्ती विद्वानों द्वारा तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किए जाने के वर्णन है या प्रतिलेखको को उक्त विभिन्न पो का श्रेय है। कि तु (देखें-आ. हस्तीमल कृत 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' मूल लेखक के विषय मे तो कुछ माधार अनुमान भी है प्रथम भाग, जयपुर १९७१ पृ० ४२५-४२७)। श्वे. कि वह संस्कृत मदनपराजय के कर्ता जिनदेव आग्नाम साहित्य मे कृ ण द्वारा मुनि को औषधिदान देने का दिग। नागदेव से अभिन्न है, जबकि इन परवर्ती पा सरकारी अनुश्रुति जैमा कोई उल्लेख तो नहीं है किन्तु भ० नेमिके सबन्ध मे कुछ ज्ञात नहीं है।
नाथ द्वारा वासुदेव कृष्ण को भावी चौबीसी मे बारहवां ५. पं० कटारिया जी की प्रति को छोडकर जो दो तीर्थंकर होने की भविष्यवाणी की गई बताई है (देखें वही रूप एव पाठ उपलब्ध है, उनमें भी कम से कम एक पाठ- पृ० २२४ तथा अतगड़दश सूत्र)। इस प्रसग में यह भेद अति दिलचरप है--१९१५ आदि के मम्करणो मे ध्यातव्य है कि मम्यक्त्व-कौमुदी के उक्त दोनो सस्करणो चौथी कथा मे (पृ० ६५ पर) औषधिदान के दृष्टान्तरूप मे उपरोक्त रेवती-वासुदेव विषयक कथन से आगे और से कथन है कि 'रेवनीश्राविकाया श्री वीरस्योषधदानं पीछे के पाठ सर्वथा समान हैं। अतएव स्पष्ट है कि यह दत्तम । तेनोपधदान फलेन तीर्थकर नाम कर्मोपाजिनमत पाठभेद किसी श्वे० विद्वान या प्रतिलेखक की साम्प्रदायिक