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जरा-सोचिए
१. 'सव्वसाहूणं' में साथ कौन! भमर, मिय, धरणि, जलरुह, रवि पवण समो अतो समणो॥' णमो लोए सव्व साहूणं'-लोक अर्थात् काई द्वीप में
उक्त परिप्रेक्ष्य मे विचारना है कि आज देखा-येबी, विद्यमान सर्व साधुओं को नमस्कार हो।
चाहे जो हो, जैसा हो, अपने से तनिक भी श्रेष्ठ होउक्त पद से क्या लोक के सभी-सच्चे और वेश या
चाहे आडम्बर परिग्रह का पुंज ही क्यों न हो? सभी को नामधारी दिखावटी साधुओं को नमस्कार करने का भाव
___ गुरु मानकर नमस्कार करने की जो परिपाटी चल रही प्रगट नहीं होता? यह प्रश्न कई लोगों द्वारा पूछा जाता
है, वह कहां तक उचित और णमोकार मंत्र सम्मत है। रहा है। इस विषय में आगम का अभिमत क्या है, इस
जरा सोचिए ! परिप्रेक्ष्य में विचारना चाहिए । आगम मे 'साधु' की २. "मिथ्यादृष्टि' का अनावित्व ! व्याख्या इस प्रकार दी है
वस्तुतत्व का निरूपण जुदी प्रक्रिया है और प्रमाद"जो अनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की कषायादि भावो वश बस्तु का कथन या विचार करना साधना करते हैं। उन्हें साधु कहते हैं । जो पांच महा- जुदी बात है। तीर्थंकरो की दिव्यध्वनि के प्रमाण नयव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियो से सुरक्षित हैं, गभित और प्रमाद-कषायादि रहित होने से उसमें केवल अठारह हजार शील के भेदो को धारण करते है और वस्तु-तत्व का विवेचन है और उसमें पुण्यात्मा-पापी चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि आदि जैसी दृष्टियों के स्वरूप परमेष्ठी होते हैं।"
कथनों का समरूप मे समावेश है। वहां प्रमादादि का "सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभि- अभाव होने से भाव या द्रव्य रूप जैसी हिंसा की सम्भा. मानी या उन्नत, बल के समान भद्र प्रकृति, मग के वना नही । इसके विपरीत-जब किसी को कषाय या समान सरल, पश के समान निरीह गोचरी वृत्ति करने प्रमादवश होकर या तिरस्कार की भावना से पापी, वाले, पवन के समान नि.संग या सब जगह बिना रुकावट हिमक, झूठा, चोर, व्यभिचारी, मिध्यादृष्टि आदि कहा के विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्वों जाय तब वहां हिंसा का दोष है और इस दोष में प्रवृत्ति के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर के समान गंभीर, मद- करना जैन या जैन धर्म को अमान्य है। राचल अर्थात् सुमेरु पर्वत के समान अकम्प रहने वाले, यतः-जैन-आगम के अनुसार यह संसार अनादि है। चन्द्र के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, मोक्ष भी अनादि है और इनके मार्ग और अनुगमनकर्ता पृथ्वी के समान बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान भी अनादि हैं। आचार्यों ने सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि अनियत आश्रय-वसतिका में निवास करने वाले, आकाश को मोक्ष का मार्ग और इन मार्गों के अनुसरणकर्ताओं को के समान निरालम्बी या निर्लेप, सदाकाल मोक्ष का अन्वे- सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और सम्यक्चारित्री कहा है। षण करने वाले साधु होते हैं।" (षटखं० १-१-१) इसमे विपरीत यानी मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्या
"मूलमंत्र में सर्वगुण सम्पन्न सभी साधुओं के ग्रहण चारित्र को संसार मार्ग और इन मागों के अनुसरणके भाव में 'सव्व' पद है। सर्व शब्द से अर्हत्-मत मान्य कर्ताओं को मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री साधुओं मात्र का ग्रहण है, बुद्धमत आदि के साधुओं का कहा है। इस प्रसग को यदि विशदरूप में जानना चाहें ग्रहण नहीं है। जिनसे सब जीवो का हित हो, जो अरहत तो कह सकते हैं कि उत्सर्ग-अपवाद, विधि-निषेध, अस्तिकी माशानुसार प्रबर्त, दुर्नयो का निराकरण करें वे सर्व नास्ति, सम्यक-मिथ्या जैमी दो विरोधी विचार-धारायें साधु हैं।" मंत्र में उन्ही को नमस्कार किया गया है और अनादि-निधन है-जब एक का विकल्प है तब दूसरी का होना उन्हीं के विषय में कहा गया है। (षट्, भाग १-१-१) अनिवार्य है। बिना ऐसा माने, अनेकान्त की भी सिद्धि नहीं 'उरग-गिरि-जलण-सागर-नहतल-नरुगणसमो अ जो होई। है । फलतः चूकि सम्यग्दृष्टि आदि व्यवहार अनादि हैं