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जरा-सोचिए
'अनेकान्त पत्रादि द्वारा जनता के आचार-विचार को ऊंचा उठाने का सुदृढ़ प्रयत्न (करना) - नियम ३ (घ)
उक्त सन्दर्भ में 'अनेकान्त' आज तक खरा उतरता आया है इसमें प्रारम्भ से ही शोध-पूर्ण, सैद्धान्तिक, आचारविचार सम्बन्धी सभी प्रकार के लेखों, कविताओ कथाओ आदि का समावेश होता रहा है ।
आज स्थिति ऐसी हैं कि युग के अनुरूप धर्म को चलाने का प्रयत्न किया जा रहा है और धर्म के अनुरूप युग को चलाने में उपेक्षा भाव दिखाया जा रहा है । फलतः --- युगानुरूप – सिद्धान्त ज्ञानहीन या भीरु कुछ लोग अण्डे जैसे अभक्ष्य को निरामिष घोषित कर धर्म मे खीचना चाह रहे हैं, कुछ शुद्ध खान-पान को छोड़ होटलों में जाने और उनमें विवाह शादी आदि रचाने में लगे हैं और कुछ समूाहिक रात्रि भोजन आदि की परम्पराएं बना रहे हैं तथा जिन्हें मन्दिर शास्त्र और गुरुओ से लगाव नहीं रह गया है उनमें कितने ही धर्म के प्रमुख बनने की दौड़ धूप में भी लग रहे है। यदि उन्हें सिद्धान्त का ज्ञान और आगम-विहित आचार-विचार का ज्ञान कराकर धर्म के अनुरूप युग को बदलने की प्रेरणा दी जाय तो धर्म के हास का स्थान धर्म का उत्थान ले सकेगा । बिना आचार-विचार के सब सूना है। हमारे पाक्षिक मासिक, द्वि या त्रैमासिक पत्र इस ओर प्रमुख ध्यान दें, तो कैसा रहेगा ? जरा सोचिए !
४. व्यसन मुक्ति प्रांदोलन !
जैन देखे, जैन समाज देखा। इसके सदस्य, पंच, पंचायतें और नेता भी देखे। हमने महाव्रती मुनि और अणुव्रती तथा अव्रती श्रावकों के समागम के अवसर भी पाए। कभी यह सब ऐसा ही रहा। पर, आज सब स्थिति बदली हुई है। अब न वैसे जैन हैं, न जैन समाज । सदस्य, पंच, पंचायत और नेता भी वैसे नही है । सब बदल गया है। जो कुछ दिख रहा है, अधिकांश बनावटी - अर्थ और यशअर्जन की दिशा में मुड़ा हुआ है।
अब तो न जाने कितनेक व्यसनी अपने को जैन लिखते हैं, कितनेक जैन समाज हैं, कितने सदस्य और कितनी ही पंचायतें हैं। और नेताओं का तो कहना ही क्या ?
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उनमें कितनेक राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक धरोहर का लाभ उठाने की धुन में हैं और कितनेक कोरी प्रतिष्ठा और यश-अर्जन के चक्कर मे है ?
जैन संस्थाओं-मन्दिरों, विद्यालयों, महाविद्यालयो और सरस्वती भवनों के हाल भी प्रायः डगमगाए हुए है । मन्दिरो में दर्शन-पूजा करने वालों को जबर्दस्ती हाँकना पड़ता है। कही कही तो पूजा का कार्य वेतन देकर पुजारियों से कराया जाता है। विद्यालयों, महाविद्यालयों के विद्यार्थी धर्म-शिक्षा का ग्रहण मजबूरी में ही करते हैं- वे भी कालेजों की शिक्षा-सुविधा को ही प्रमुखता देते हैं । हमारे पूर्वजों ने सरस्वती भवनों की स्थापनाएं कीं । खोज २ कर दुर्लभ-ग्रंथों के संग्रह किए— उन्हे आज पढ़ने वाले नही । इन सब बातों मे, अनेक कारणों में एक कारण लोगों का व्यसनों से लगाव भी है। अतः व्यसनो से मुक्ति आवश्यक है।
जैन को सबसे पहले व्यसन मुक्त होना चाहिए और आज की पीढ़ी मे इसका ह्रास है। जब तक एकजुट होकर इन व्यसनों से मुक्ति नही पाई जाती, तब तक सुधार असम्भव है।
हाल ही में कोल्हापुर मे घटित समाचारो को पढ़कर कुछ आशा की किरणे चमकती जैसी लगी हैं। वहाँ के वीरो ने मुनि श्री विद्यानन्द जी के आशीर्वाद मे 'व्यसनमुक्ति आंदोलन' पद्धति को अपनाया है। म० गाधी की भाति इसमे भी डगर-डगर, नगर-नगर, ग्राम-ग्राम और गली-मुहल्लों में पैदल मार्च होता होगा और लोगों को व्यसन मुक्त रहने का संदेश दिया जाता होउगा ।
हमे स्मरण रखना चाहिए कि मुनि श्री पिछले दशकों मे, व्यवहारतः - धर्म प्रचार के विधि-विधान निर्मित एवं उनको सफलतापूर्वक संचालित करने मे सफल हुए हैं। उन्होंने आबाल-वृद्ध - विशेषकर नवयुवकों को व्यवहार धर्म की दिशा में जागृत किया है। धर्म चक्र, मंगलकलश, धार्मिक रिकार्ड्स निर्माण, गोम्मटगिरि पर भ० बाहुबली महामस्तकाभिषेक का बड़े पैमाने पर आयोजन आदि सब मुनि श्री के आशीर्वाद फल हैं।
इस प्रकार के व्यसन मुक्ति आंदोलन को अपनानासभी के हित में है ऐसा हम सोचते हैं । जरा आप भी सोचिए !
-सम्पादक