Book Title: Anekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ स्वाध्याय और उसकी महत्ता 'सुष्ठु सम्यक् प्रकारेण अधीयत् इति स्वाध्यायः ।' भले प्रकार मन, वचन और काय की शुद्धता से अर्थ के चिन्तवन सहित विनायम का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है।' अथवा 'शोभनोऽध्यायः इति स्वाध्यायः' अर्थात् कालमुद्धिपूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करने या कराने को स्वाध्याय कहते हैं। जो निर्दोष हो, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और और परिग्रह इन पांच पापों को नाश करने वाला हो, जो प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण से सहित हो एवम् सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान द्वारा कहा गया हो वही सच्चा शास्त्र है ।' सर्वज्ञ कथित सच्चा जिनागम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग से चार भेद वाला है। इन चारों के शास्त्रों को यथार्थ रूप से पढने पढ़ाने को ही स्वाध्याय कहते हैं। इसे प्राकृत मे "सज्झाय" कहते हैं। इस प्रकार भुत के अध्ययन पाठ को स्वाध्याय कहा जाता है ।" जिस प्रकार बिना प्रकाश के अन्धकार में रखे पदार्थों का पूर्ण ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार विना श्रेष्ठ शास्त्रों के पढ़े ज्ञान सम्भव नहीं । ज्ञान के अभाव मे मनुष्य प्रगति के पथ पर नहीं पहुंच सकता अतः ज्ञान-मानव-जीवन का सार है ।' ज्ञान नेत्र का उद्घाटन शास्त्र स्वाध्याय द्वारा ही सम्भव है। बिना शास्त्र ज्ञान के चक्षु होने पर भी मनुष्य अन्धा ही कहा जाएगा। जो पदार्थ चक्षु द्वारा प्रतीत नही होता उसे प्रकाशित करने के लिए शास्त्र ही सक्षम हैं । यह शास्त्र ज्ञान मानव का तीसरा नेत्र है ।" सम्यक् ज्ञान के लिए स्वाध्याय आवश्यक है । स्वाध्याय के माध्यम से अज्ञान दीप बुझकर पुनः ज्ञान दीप ज्वलित होता है । जैन धर्म मे श्रावक के षट्कर्म बताए गए हैं जिनमें स्वाध्याय भी समाहित है यथा "देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानाम् षट्कर्माणि दिने दिने ।' मानव जन्म-मरण के बन्धनों से आकांत है जिसके 6] कु० राका मंग फलस्वरूप वह दुःखों का वहन करता है यह दुःख वस्तुतः अज्ञान ही है । स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य दुःखों से दूर रहता है।' अत सम्यग्ज्ञान अर्जित करने के लिए स्वाध्याय आवश्यक है, यहां सम्यग्ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है।" स्वाध्याय मोक्ष प्राप्ति का एक सोपान है। तप के द्वारा अभीष्ट (मोक्ष) की प्राप्ति सम्भव हैऐसा भारतीय संस्कृति में मान्य है । जैस-धर्म में बारह प्रकार के तप बताए गए हैं।" उनमें से एक तप स्वाध्याय भी है । यह तप के आभ्यन्तर रूप में समाहित है । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश, ये पांच प्रकार के स्वाध्याय माने गए हैं।" स्वाध्याय का अर्थ विद्याभ्यास करना है।" पढ़ना, पढ़ाना, शुद्ध-पाठ उच्चारण करना, धर्म सम्बन्धी उपदेश करना अथवा तत्वों का चिन्तवन करना, ये सभी बातें विद्याभ्यास में ही गमित है।" १. वाचना- निर्दोष ग्रन्थ का अर्थ सहित अध्ययन करना वाचना स्वाध्याय कहा जाता है।" २. पृच्छना - जो वाचना द्वारा अध्ययन किया जाता है उसे दृढ़ बनाने के लिये विशेष विद्वान् से उस विषय में प्रश्न करना पृच्छना है ।" प्रश्न करना अध्ययन नही कहा जा सकता अतः इसे स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता अतः इसे स्वाध्याय में समाहित नहीं करना चाहिए किन्तु प्रश्न करना अध्ययन की प्रवृत्ति में सहायक है अतः उसको भी स्वाध्याय कहना असंगत न होगा। पृच्छना को पढ़ना भी कह सकते हैं । " ३. अनुप्रेक्षा --- जो अध्ययन किया है उसका बार-बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय कहलाता है। बारह भावनाओं का भाना भी अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है ।" ४. आम्नाय पढ़े हुये पाठ को शुद्ध उच्चारणपूर्वक पढ़ना आम्नाय स्वाध्याय कहलाता है ।" ५. धमोंपदेश - पूर्व पुरुषों के चरित्र अथवा विषयों का स्वरूप बतलाना धर्मोपदेश कहलाता है । अथवा त्रेसठ

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