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३४, ३६, कि०२
अनेकान्त जब कभी [सप्ततिर्मोहनीयस्य मोहनीय के उदय में आने कोषकारों ने प्रायः जो अर्थ दिए हैं वे निम्न भांति हैंपर हितबदिया लीलावश अवतार ले सकेगा; लोक का मंत-मा प्रा निर्माण कर सकेगा, कर्मफल दे सकेगा और वह सर्वव्या
-वृहत् हिन्दी कोष (ज्ञानमण्डल) पक भी हो सकेगा जैसा कि काफी समय से प्रच्छन्न उपक्रम संत-सन्यासी, सत्संगी पुरुष, सज्जन, परमधार्मिक, है। क्या यही ईश्वर जैन-दर्शन-मान्य ईश्वर होगा ? जरा पति,(ऊपर की भांति अन्य अयों मे भी)-मानक हिंदी कोष । सोचें और जैन-दर्शन-मान्य आत्मा को 'न शून्यं न जडं -संस्कृत में 'संत' शब्द है या नही हम नही जानते । नोचिच्छान्तमेवेदमाततम्' जैसी घुसपैठ से रोकें। नहीं तो
यह भी तथ्य है कि आचार्यों ने 'संत' को 'सत्त्व' भाव इसके परिणाम जैन-तत्त्व विध्वंसक होंगे । सदियों बाद
में भी लिया है । यथा-'अप्पदरसंतविभत्तिओ . कहा जायगा कि-जैन-मान्य-आत्मा भी न शून्य है न जड़ है और न चैतन्य है-वह तो शान्त और सर्वव्यापक है। (कषायपाहुड चूणि गाथा २२ सूत्र १२४)
हमारा निश्चित मत है कि आचार्यों द्वारा 'अपदेस' दसरी बात । मौह के शान्तरसी मानने पर शान्तरस 'संत' और 'मज्ज्ञ' तीनों शब्दों के अर्थ अनेकों बार दिए और मोह में गुण-गणीपना मानना पड़ेगा अर्थात् शान्तरस गए हैं जो आगमों मे यत्र-तत्र उपलब्ध हैं । अतः यह गुण और मोह गुणी ठहरेगा । एक के अभाव में दूसरे का कहना कि टीकाकारों ने गलत या उलझनपूर्ण जो जैसा चला भी अभाव होगा । यदि मोह (गुणी) का अभाव किया आ रहा था वैसा ही मान लिया, आचापों का अपमान है। जायगा तो शान्त रस (गुण) उसके साथ ही जायगा। हां, अब तो यह भी सोचना पड़ेगा कि आचार्यों को मान्य और इस भांति 'शान्त रस' मानने वालों के सिद्धांत में करने की दिशा में "संत' के अर्थ में यतिवृषभाचार्य और मोह-क्षय करना सर्वथा निषिद्ध हो जायगा । जो जैन-दर्शन प्रबलाकार आदि जैसे - को इष्ट नही।
वरीयता दी जाय या नही : अस्तु ! अब तो कोई-कोई यह भी कहने लगे है कि-'संत' हमारी भावना है कि आगम तद्वस्थ और अपरिवर्तित शब्द देसी हिन्दी भाषा में भी है और शान्त अर्थ में है। रहे इसी भावना को लक्ष्य में रख हमने प्राचीन उद्धरणों पर, जहां तक हमने देखा है 'संत' शब्द श्रेष्ठ जैसे अन्य को संकलित किया है। हमारे भाव तदनुकूल और स्पष्ट अनेक अर्थों में है, शान्त अर्थ में नही । संत का तत्समरूप हैं-पाठक विचारें। इस विषय में हम पहले भी काफी सत् भी है-संत पुरुष को सत्पुरुष भी कहते हैं । हिन्दी स्पष्टीकरण दे चुके हैं। हमारा अपना कुछ नहीं।
'छमस्थ-लौकिक पुरुष चाहे कितने भी प्रसिद्ध विद्वान क्यों न हों ? उन सभी के सभी लेख, वार्तालाप सैद्धान्तिक-प्रसंगों में जिनागम का रहस्योद्घाटन नहीं करते-उनमें कुछ और भी हो सकता है। प्रतः ज्ञानी पुरुष प्रमाण और नय की कसौटी पर परखकर ही उनकी हेयोपादेयता का निर्णय करते हैं। वे उनके मंतव्यों को प्रचारित भी तभी करते हैं।'